ग़ज़ल
बह्र 1222 1222 1222 1222
हँसाने के लिए सबको हजारों दुख उठाती है
यही औरत जमींपर एक जन्नत भी बनाती है
मुझे जीवन के सब दिन आज तक उसने दिखाए हैं,
बिताये साल बिन उसके मेरे खाबों में आती है।
जब चिंता में घिरा था वो परेशां थी तकलीफों से,
नमी उसकी निगाहों में मुझे मीठा बुलाती है।
न खाती थी न पीती थी निहारे बस मुझे इकटक,
मेरी आँखें तरसती हैं मुझे इतना लुभाती है।
बड़े बच्चे हुए उसके वो फूली ना समाती थी,
बहुत था गर्व उसको भी चमक चेहरे पे आती है।
बहुत चाहा बहुत सोचा नहीं कुछ खास कर पाया,
कमी ख़लती सदा उसकी मेरे लमहे चुराती है।
खुदा माँ नूर बरसे है यहीं जन्नत दिखाती है,
नहीं ये आदमी होता वही सब कुछ सिखाती है।
— रेखा मोहन