लघुकथा

चुनावी रैली

लाला धनीराम कलुआ को अंतिम चेतावनी देते हुए बोला ,” देख कलुआ ! तुझे मैं एक मौका और दे सकता हूँ । बता कब तक दे सकता है मेरे दस हजार रुपये ? “
लाला को देखकर सूखे पत्ते की मानिंद काँपने वाले  कलुआ ने गजब के आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया ,” लालाजी ! आपकी बड़ी मेहरबानी है । बस एक मोहलत और । मैं पक्का वादा करता हूँ कि इस बार मई महीने के आखिर तक मैं आपके सारे पैसे लौटा दूँगा ! “
एक और मोहलत देकर लाला के चले जाने के बाद जगमतिया कलुआ से बोली ,” आपने एक बार फिर लाला से झूठ बोल दिया । कहाँ से आएँगे इतने पैसे ? यूरिया मिल नहीं रहा । पानी के अभाव में गेहूँ की फसल पहले ही बरबाद होने की कगार पर है । और आपने दस हजार रुपये जमा करने का सपना देख लिया ? “
 ” अरे ललिया की अम्मा ! तुम काहें परेशान हो रही हो ? हम सब सोच समझकर बोले हैं । अभी चौराहे पर चर्चा हो रही थी कि चुनाव आनेवाले हैं । अब नेता लोग का आना जाना भी शुरू हो जाएगा । रैलियाँ होंगी और तुम तो जानती ही हो कि पिछली बार भी हमें रैलियों में जाने से कितना फायदा हुआ था । ” कलुआ ने समझाया ।
” वो तो ठीक है ! पिछली बार हम एक खास पार्टी के चार पाँच रैली में जा पाए थे । अबकी भी उस पार्टी की इतनी ही रैली होगी तो उससे थोड़े न इतना पैसा मिल जाएगा ? ” जगमतिया ने हिसाब लगाते हुए कलुआ को बताया ।
” किसी खास पार्टी की ही रैली में क्यों जाएँगे ? हम पूरा परिवार अपने आसपास होनेवाली सभी रैलियों में जाएँगे ! करना क्या है ? उनका झंडा ही तो पकड़ना है और जयकारे लगाना है । बीस पच्चीस रैली तो अपने आसपास हो ही जाएगी । इतना काफी है हमारे लिए ! ” कलुआ ने विजयी मुद्रा में जगमतिया की तरफ देखा था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।