कविता

अब याद नहीं

दिल में कोई अफसोस नहीं

और होठों पर फरियाद नहीं
कल तुम क्या थे और मैं क्या था
अब फर्क नहीं अब याद नहीं
खिलना था तेरे प्यार के दम पर
यूं होना था बर्बाद नहीं
मैनें तुझको शीरी माना
पर तूने मुझको फरहाद नहीं
क्यों तेरे प्यार में मैं तड़पूं
क्यों नैना मिलने को तरसूं
क्यों अंधे प्यार में अंधा रहूं
क्यों दुख की जंजीरों से से बंधा रहूं
इतना चाहा था तुझको
ये जान भी तुझको देता
इस दुनिया के सारे दुख
मैं तेरी खातिर ले लेता
सच है की इतना खुश मैं
रहूंगा तेरे बाद नहीं
इन दुख के सारे बंधन तोड़
क्यों हो जाउं आजाद नहीं
कल तुम क्या थे और मैं क्या था
अब फर्क नहीं अब याद नहीं
विक्रम कुमार

विक्रम कुमार

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