कविता

दिलखुश जुगलबंदी- 9

भीष्म पितामह भी बन जाएंगे

भगवान का दिया कभी अल्प नहीं होता,
जो टूट जाये वो संकल्प नहीं होता,
हार को जीत से दूर ही रखना,
क्योंकि जीत का कोई विकल्प नहीं होता.

विकल्प को क्यों ढूंढें हम?
डोर संकल्प की पकड़ ली है हमने,
दुनिया को नहीं बदल सकते तो क्या,
खुद को बदलने की ठान ली है हमने.

कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं मन चाहिये,
साधन सभी जुट जाएंगे, संकल्प का बस धन चाहिये.

यह सच है कि कुछ कर गुजरने के लिये,
मौसम नहीं मन चाहिये,
साधन सभी बन जाएंगे मन के गुलाम,
बस मन को साधने के लिए सुसंकल्प-सा शहनशाह चाहिये.

विकल्प बहुत मिलेंगें मार्ग से भटकाने के लिये,
संकल्प एक ही काफी है, मंजिल तक पहुंचाने के लिये.
मुट्ठी भर संकल्पवान लोग
जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है,
वे इतिहास को बदल सकते हैं.
बुझी शमा भी जल सकती है,
तूफानों में कश्ती भी चल सकती है,
होके मायूस न अपने इरादे बदल,
तेरी किस्मत कभी भी बदल सकती है.

किस्मत के भरोसे रहना ही क्यों,
हम वो हैं जो हाथों की लकीरों को बदल सकते हैं,
हमारे इरादों का पाल इतना मजबूत है,
हम हवाओं के रुख को भी बदल सकते हैं.

जिंदगी के इस रण में खुद ही कृष्ण
और खुद ही अर्जुन बनना पड़ता है,
रोज अपना ही सारथि बनकर
जीवन की महाभारत को लड़ना पड़ता है.

ऐसा है तो हम खुद ही अपने सारथि कृष्ण भी बन जाएंगे,
रथ में बैठने वाले पार्थ भी बन जाएंगे,
भीष्म पितामह के समान भीष्म है अपनी प्रतिज्ञा,
जरूरत पड़ी तो हम भीष्म पितामह भी बन जाएंगे.

‘प्रॉमिस डे’ (कविता) के कामेंट्स में रविंदर सूदन और लीला तिवानी की काव्यमय चैट पर आधारित दिलखुश जुगलबंदी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “दिलखुश जुगलबंदी- 9

  • लीला तिवानी

    बारात में गानों की धुन पर अक्सर सबकी मस्त ‘जुगलबंदी होती है, लेकिन यह दिलखुश करने वाली दिलखुश जुगलबंदी न जाने कैसे शुरु हुई और कैसे आगे बढ़ रही है, पर इसका सृजन होते समय भी दिल खुश हो जाता है और बाद में आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता है, कि दिलखुश करने वाली दिलखुश जुगलबंदी का सृजन हुआ तो कब और किस मूड में! फिर यह जुगलबंदी ‘प्रॉमिस डे’ के दिन हो और ‘प्रॉमिस’ ली जाए भीष्म पितामह भी बन जाने की, तो कहना ही क्या. सच पूछें तो नया-नया कुछ सीखने करने की रविंदर भाई की लगन के साथ उनकी सृजनता भी लाजवाब है.

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