ग़ज़ल
कुछ अपने हैं पराए कुछ खड़े हैं,
मगर जो साथ दे बस वो बड़े हैं।
कभी भी वो नहीं माने किसी की,
ज़रासी बात थी ज़िद पर अड़े हैं।
उखडकर वो सभी बाहर मिलेगें,
सभी मुर्दें यहां पर जो गड़े हैं।
बिखरकर टूटना उनका मुकद्दर,
वे शीशे लाख जो सोने जड़े हैं।
वज़न इसपे बराबर हो हमेशा,
तराजू सा है जीवन दो धड़े हैं।
समेटो आज ख़्वाबों को यहां ‘जय’,
तुम्हारी राह जो बिखरे पड़े हैं।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’
हरदा म प्र