कविता

आई द्वार मस्तानी होली आई

द्वार पर आई रे मस्तानी होली
रंग डारो रे होकर मस्त मगन,
भिगाओ रे तन मन प्रेम रंग में
रहे न जाए मन में कोई अगन।

खुशी की कली खिल मुस्काए
रंग में मिला दो भंग सांवरिया,
तुम बिन होली कौन संग खेलूँ
धीर न धरे मोरा मन बावरिया।

पीके भंग नाचूँ ढोलक थाप पर
घुंघरू बांधकर अपने पांवों में,
टोको न आज रोको न कोई मुझे
मन उड़ चला आकाश के गांवों में।

तोड़ दो आज सारे मन के बंधन
केवल लाज पर रखो सब पहरा,
सब रंग फीका पड़ जाना एकदिन
प्रेम का रंग चढ़े चटख औ’ गहरा।

घाव जो है हरा भर जाएगा पुनः
भीगा लो गोरी अपनी चुनरिया,
दुखों के बाद आई खुशी की होली
भर लो खुशी से मन की गगरिया।

दुख और खुशी के मिले जो रंग
मन रंग कर हो जाए केसरिया,
केसरिया रंग का लगा गुलाल तो
तिरंगा भई गोरी की धानी चुनरिया।

गालों पर लगे जो रंग गुलाल के
फूलों सा खिला गोरी का मुखड़ा,
भूल जाए आज सारे गिले शिकवे
बिसरा दे मन में बसे सारा दुखड़ा।

सबको आज आओ लगा ले गले
तोड़कर ऊंच-नीच, धर्म की दीवार,
प्रेम रंग से रंग दे सब का अंतर्मन
खोल दे घृणा से बंद है जो किवाड़।

उस आंगन को रंग दे चलो मिलकर
जो आंगन सूना पड़ा है रंग विहीन,
सूने मन को भिगो दें रंगों से आज
होठों से मुस्कान उनकी न हो विलीन।

समय दिया है समय ने एक बार
खुशियों से भर लो अपनी झोली,
घाव जो है हरा भर जाएगा पुनः
आई द्वार पर आई मस्तानी होली।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]