बिनआखर बिन शब्द के
उड़ते हुए शब्दों को पकड़
मन पिंजर में बंद कर
निर्जन शांत एकांत में बैठ
जुगाली का आनंद लिया
कुछ कटीले कुश सम
कंठ को घायल कर
तो कुछ नरम घास सम
जठरानल को शांत कर गए।
मन-मस्तिष्क, हृदय से जन्मे ये
कुछ आड़े-तिरछे से
कुछ शालीनता की चादर ओढ़े
चौकड़ी जमाये
मुख के द्वार पर बैठे
कुछ सम्मान की डोर को थामे
तो कुछ अपमान की रस्सी पकड़े
सहमे सिमटे से पड़े हैं।
अनोखे जादूगर सम
गीतों का आनंद देकर
मन शांत रखने में सहायक
पंछी सम समीपस्थ उड़कर
लोरी की मिठास,ममत्व को
कानों में मिस्री सा घोल देते हैं।
दंतहीन होकर भी
विषैले दर्द का अहसास दे
निर्मल नैनों से अश्रुधार बहा
उतावला कर हर किसी की
पोल खोल
विकास के नये आयामों से
जोड़ देते हैं।
कबीर के ढाई आखर की महिमा
कण कण में व्याप्त हो
बिखेरती सिंदूरी रंग
चढ़कर सीढ़ी पर
देख लिया विस्तृत संसार
बिनआखर बिनशब्द के
रामायण, गीता, वेद, कुरान
गुप्त रह बेमोल हो जाते।
— निशा नंदिनी भारतीय