लघुकथा

स्वाभिमानी

दरवाजे पर प्रीतम सेठ को देख कर रुकमणी की भौंहें चढ़ गई। सेठ और हमारे दरवाजे पर कहीं सूरज आज पश्चिम से तो नहीं निकला? ये तो कभी लोगों के दरवाजे पर जाता नहीं। लोग इन के दरवाजे पर हाथ फैलाए पहुंच जरूर जाते हैं। ऐसे ही एक बार हम भी गए थे। बड़ा एहसान जताया था उधार देकर।
सेठ को देखते ही जैसे रुकमणी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वह अपने आप पर नियंत्रण ना पा सकी “हमारे दरवाजे पर सेठ प्रीतम? अब क्या लेने आ गए हमारे दरवाजे पर? जो लेना था वह तो ले लिया। हमारे पास तो अब कुछ भी नहीं बचा है। थोड़ी सी जमीन थी वह भी तुमने उधार के बदले छीन ली। हम दोनों बुड्ढे बुड्ढी रहे गए हैं केवल। अब क्या हमारी जान छीनने आए हो? क्या मिल जाएगा हमारी जान लेकर?”

रुकमणी की इतनी कड़वी बातों के पश्चात भी सेठ पीतम खिसियानी हंसी हंस रहा था।
हंसते हुए कहा “माई कुछ लेने नहीं आए हैं, कुछ देने आए हैं। आपको होली की बधाई देने और गालों पर थोड़ा सा गुलाल लगाकर खुशियां देने आए हैं। कुछ रुपए दे रहा हूं अपने पास रख लो। लोगों से पता चला है कि आजकल फांके में दिन गुजार रहे हो।” हे हे हे करके हंसने लगा प्रीतम।
“माई.. इस बुढ़िया को तुम माई कह रहे हो? हम कौनो माई नहीं है तुम्हारी। जब हमारी जमीन छीन ली, तब.. माई की याद नहीं आई थी तुम्हें। आज इस बुढ़िया के गालों पर होली का रंग लगाकर खुशियां देने आए हो प्रीतम सेठ। हमारी गरीबी का मजाक उड़ाने आए हो क्या? न बाबा न.. हमें नहीं लगाना है तुम्हारा अबीर और गुलाल। तुम्हारा अबीर और गुलाल तुम्हें ही मुबारक हो। रूपये के बदले फिर हमारा एक मकान बचा है झुग्गी नुमा, वह भी तुम हथिया लोगे तो हम अपना सिर कहां छुपाएंगे?”

रुकमणी की बातें सुनकर खिसियानी हंसी हंसते हुए सेठ प्रीतम ने कहा “नहीं.. रुपए के बदले तुम्हारा मकान नहीं हथिआएंगे। का है की माई इस बार हम चुनाव में खड़े हुए हैं! पंजे पर वोट देना, कभी भूखी नहीं रहोगी और जमीन भी वापस मिल जाएगी। पर हमें जिताना जरूर।”
“मत बोल हमें माई, तेरे मुंह से माई शब्द तनिक भी अच्छा नहीं लगता। तेरे जैसे नाशपीटे को हम वोट नहीं देंगे। चाहे हम भूखे क्यों न मर जाए। रूपए के बदले हमारा वोट खरीदने आया है? तू तो सेठ है, तेरी आदत कहां से जाएगी। सौदा करना तो तेरे खून में बसा है। नेता बन गया तो देश का सौदा कर लेगा दुश्मनों के साथ। ले जा तेरे रूपए और दफा हो जा मेरे सामने से।” स्वाभिमानी रुक्मिणी आंखें तरेर कर बोल पड़ी..!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल!

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]