द्रौपदी की व्यथा
गौर से सुनिए कि है यह मेरी आत्मकथा
सभी को लगेगी यह उनकी अपनी व्यथा
मैं द्रुपद-पुत्री नाम है मेरा द्रौपदी
पिता ने मुझे स्वयंवर की इच्छा सौंप दी
कई दिग्गज महाराजा आए
पर प्रतियोगिता देख सब घबराए
जब पांडु पुत्र अर्जुन आगे आए
सब उन्हें देख कटाक्ष में मुस्कुराए
उन्होंने गांडीव उतारा और की एक टंकार
दसों दिशाओं में गूंजी उसकी झंकार
मन से पुकार आई कि काश वह बन जाएँ बस मेरे पति
और बन जाऊं मैं भी बस उनकी ही सती
उन्होंने यथा ही मत्स्य भेद दी
और मैं उनके साथ चल दी
मन ही मन मैंने उन्हें अपना मान लिया था
परंतु भाग्य में मेरे कुछ और लिखा गया था
पांचो पांडव पहुंचे मां के द्वार
मां को लगाई बाहर से पुकार
देखो मां हम क्या लाए हैं?
मां ने बिना देखे ही उत्तर दिया-
जो भी वस्तु लाए हो सब भाई बांट लो!
मैं कदापि न मानती
परंतु मुझे समझाया गया
मैंने अपनी इच्छाएं दबाईं
मुझे कुछ यूं मनाया गया
फिर मां की आज्ञा का पालन हुआ
परंतु मेरे तन मन का विभाजन हुआ
सदा यही शिक्षा मिली कि
मातृ देवो भवः पितृ देवो भवः
कदा यह भी भिक्षा मिली कि जैसा भी हो पति देवो भवः
पर स्त्री के साथ ही क्यों यह अन्याय
कि सब नीतियां उसे ही सिखाई जाएं?
इस विकट संसार का यह विकट न्याय
कि घर संसार तज कर स्त्री कहां जाए?
मैंने भी बस यही किया
और पांचों को ही अपना लिया
परंतु स्त्री की यह उपेक्षा क्यों?
सदा उसी से बलिदान की अपेक्षा क्यों?
— प्रियंका अग्निहोत्री ‘गीत’