ग़ज़ल
मुझे यह चाहत कहां पे लाई न मौत है ना ही जिंदगी है
ये आग कैसी लगी है दिल मैं धुआं है ना कोई रोशनी है।
किसीने ना पूछा हाल मेरा कि तंहा दिन कैसे हैं गुजरते
रही तमन्ना के कोई पूछे तुम्हारी आंखों में क्यों नमी है।
इजहार ए चाहत हुई जो हमसे गुनाह हमसे ये हो गया
छुपा सके हम न हाल दिल का मेरी वफाओं में ही कमी है।
ना मुड़के देखा किसीने पीछे कि हम उसी मोड़ पे खड़े थे
हटेंगे पीछे यहां से मर कर हां जानलेवा ये आशिकी है
कभी न देखा मिले न तुमसे न जाने क्यों तुमपे प्यार आया
तुम्हारा साया है आसमा और तुम्हारा दामन मेरी जमीं है।
सजर कि शाखों के गुल की किस्मत कहां कोई बागवां लिखेगा
हवाओं ने रुख बदल दिया तो कहां कली कोई फिर खिली है।
मुझे बताओ शमा जली है य जलके परवाना जल गया है
किसीपे इल्जाम क्या लगाएं जलाया गर खुद भी तो जली है।
मिले मोहब्बत कुबूल कर लो खुदा की नेमत है ये ही जानिब
हे तेरी किस्मत है वक्त तेरा वफा यहां सबको कब मिली है।
— पावनी जानिब, सीतापुर