गज़ल
हरदम करता रहा सफर मैं
बना न पाया कहीं भी घर मैं
लोगों ने आवाज़ बहुत दी
लेकिन ठहरा नहीं किधर मैं
छोड़ गया जब तू ही मुझको
क्या करता तनहा जीकर मैं
किससे-किससे बचूँगा कबतक
सबके निशाने के ऊपर मैं
तू मंदिर की मूरत जैसी
सूनी राहों का पत्थर मैं
ख्वाब है तू या कोई हकीकत
आ देखूँ तुझको छूकर मैं
— भरत मल्होत्रा