लघुकथा

पानी का बुलबुला

आज फिर मासूम नमिता गोत्र की बलि चढ़ गई। एक तो गरीब मां-बाप ऊपर से दहेज लोभी समाज। स्वगोत्र में कोई लड़का मिल भी रहा था तो दहेज की मांग सुनकर चुप रह जाता सुभाष दत्त। आखिर उसे एक खाते-पीते परिवार का लड़का अरिंदम, जो कि अपाहिज है मिल गया अपनी बेटी के लिए। सुभाष दत्त न चाहते हुए भी अपनी बेटी की शादी उससे तय कर दी, क्योंकि अरिंदम एक किराने की दुकान का मालिक है। गांव में खाते पीते परिवारों में उसका परिवार गिना जाता है।
अरिंदम को तलाश थी एक जीवन साथी की परंतु स्वगोत्र में कोई लड़की देने को तैयार न था।
गांव में अपने रूप के कारण जानी जाती है नमिता। शादी तो हो गई परंतु नमिता मन से कभी अरिंदम को स्वीकार न कर पाई।
अरिंदम को कभी नमिता की आंखों में तिरस्कार के सिवाय प्रेम छलकते हुए नहीं दिखा, फिर भी वह इस रिश्ते को निभाने का भरपूर प्रयास किए जा रहा था।
अरिंदम जब भी नमिता से प्रणय निवेदन करता तो.. वह मुंह बनाकर तिरस्कार करती हुई चल देती। और मन ही मन कहती कहती “पता नहीं यह लंगड़ा कहां से मेरे गले पड़ गया। पापा को भी यही लड़का मिला था मुझसे शादी कराने के लिए। अब जीवन भर मैं इसी को ढोती रहूंगी। पता नहीं मुझे कभी इससे मुक्ति मिलेगी भी कि नहीं।” नफरत की आंधी उसके मन चेतना को उद्वेलित कर देती।
तिरस्कृत होकर भी अरिंदम चुप रह जाता। उसके पास कहने के लिए कोई शब्द थे ही नहीं। नमिता ने कभी भी अरिंदम के ह्रदय में उसके लिए भरे प्रेम का थाह लेने का प्रयास ही नहीं किया।
एक दिन स्टोव में खाना बनाते समय अचानक आग धधक उठी जो नमिता के चेहरे को पूरी तरह जला दी। उसने अचानक आंखें बंद कर ली इसलिए आंखें बच गई थी। नमिता की चिल्लाहट सुनकर बैसाखी के सहारे तीव्र गति से चलते हुए अरिंदम उसके पास पहुंचा तो उसकी हालत देखकर घबरा गया।
उसे अस्पताल ले जाया गया तो डॉक्टर ने कहा “ठीक होने में समय लगेगा परंतु चेहरा पुनः पहले जैसा नहीं हो पाएगा, बहुत ज्यादा जल गया है।”

स्वयं को आईने में देखकर नमीता जोर जोर से रोने लगी। अरिंदम ने आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा “जो हो गया वह समय के हाथ में था। तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा।”
“क्या ठीक हो जाएगा.. ऐसा चेहरा लेकर मैं जीना नहीं चाहती। अब जी कर क्या करूंगी। अब मुझे कौन पसंद करेगा? सब देखकर हंसेंगे।”
“हंसने दो जिसे हंसना है.. मुझे किसी का परवाह नहीं। मैंने सदैव तुम्हें पसंद किया और करता रहूंगा। तुमसे प्रेम करता रहूंगा। तुम्हें मेरे लिए जीना पड़ेगा नमिता। तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं।” नमिता का हाथ पकड़कर अरिंदम ने कहा तो नमिता स्वयं को बहुत अपराधी सी महसूस करने लगी।
वह सोचने लगी “ये वही अरिंदम है, जिसे मैंने न जाने कितनी बार तिरस्कृत किया। न जाने कितनी बार लंगड़ा कहकर हंसी उड़ाई। न जाने कितनी बार उस पर व्यंग बाण छोड़े। कभी उसके हृदय की थाह लेने का प्रयास ही नहीं किया। प्रेम तो हृदय में बसता है, किसी के शरीर में नहीं। क्या हुआ जो शरीर का एक अंग नहीं है अरिंदम का, हृदय तो बिल्कुल स्वस्थ है। उसी हृदय में मेरे लिए इतना प्रेम भरा हुआ है। रूप तो पानी का एक बुलबुला सा है जो नश्वर है। आखिर इंसान के गुण ही है जो जीवन भर साथ निभाते हैं। नियति की विड़ंबना देखो जिससे मैं घृणा करती रही, वही आज मुझसे सबसे ज्यादा प्रेम करता है, यह देख कर भी कि मैं पहले जैसी रूपवती नहीं रही।”
अपने पति के सीने पर अपना सिर रखकर मन का सारा अपराध बोध आंखों के अश्रु से धोने का प्रयास करने लगी नमिता..!!

ज्योत्स्ना पाॅल

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]