अपना है मगर अपनो सी इज़्ज़त नहीं देता
अपना है मगर अपनो सी इज़्ज़त नहीं देता
उड़ता हुआ बादल कभी राहत नहीं देता।
फ़रमाइशें हैं शान में उनके भी हो ग़ज़ल
मेरा ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं देता।
मेरी भी ख़्वाहिशें हैं कि छू लूँ मैं आसमान
टूटा हुआ पर उड़ने की त़ाक़त नही देता।
बेवजह वो रखता है सदा खुद को नुमायॉ
मक्कार किसी और को अजमत नहीं देता ।
करिये मदद ग़रीब की दिल खोलकर जनाब
हर शख़्स को वो एक सी क़िस्मत नही देता।
मैंने यही सुना है बुजुर्गों की जुबानी
भगवान दगाबाज को बरकत नहीं देता ।
देखे हैं जो सपने उन्हें कल पर न टालिये
ये वक़्त है पल भर की भी मोहलत नही देता ।
—- डॉ डी एम मिश्र
बहुत सुंदर ग़ज़ल !
सम्पादक जी के अवलोकनार्थ , टिप्पणी हेतु
– डी एम मिश्र