शुद्ध गाँव बनाम मिलावटी गाँव
‘ढिंचक … ढिंचक …’ कुछ इसी प्रकार की आवाज़ से ध्यान भंग हुआ था नये बंगले में रहने आये परिवार के पाँच वर्षीय बालक का । सर्दियों के दिन और सुबह के सात बजने को थे । सर्दियों में सुबहें सुनसान हुआ करती हैं इसीलिये सुनसानियत में वह आवाज़ भी गूँज रही थी । नयी जगह और ऐसी आवाज़ उस बालक ने पहले कभी नहीं सुनी थी । रजाई में सोये बालक को यह आवाज़ अजीब सी लगी । वह रजाई में से उठ बैठा और उत्सुकता से अपने कमरे की खिड़की से झाँकने के लिये गया तब तक वह आवाज़ बन्द हो गई थी । बालक था तो उत्सुकता स्वाभाविक ही थी । बालमन पर यही बातें उसके अंतस पर प्रभाव डालती हैं और अनेक प्रश्न उसके मन में उठ खड़े होते हैं जिनका जवाब वह उसी समय जानना चाहता है । ‘यह आवाज़ कैसी थी’ सोचता हुआ वह बालक खिड़की से इधर उधर झाँकता रहा और सुनने की कोशिश करता रहा पर वह आवाज़ सुनाई देनी बन्द हो गई थी । खिड़की से बाहर देखा तो आसपास कई नए बंगले बन रहे थे । जिस बंगले में यह परिवार रहने आया था वह भी नया बंगला ही था । खिड़की से बाहर विशाल क्षेत्र था जिस पर ये बंगले बन रहे थे और अभी बहुत सी जगह खाली पड़ी थी जहाँ कुछ पेड़ थे और सूखी झाड़ियाँ । कुछ सूखी झाड़ियों पर फूल से खिले थे, अनाम, पतली पतली छोटी पत्तियों वाले कुछ गुलाबी से जिनमें कोई महक नहीं होती है । पत्तियों की भाँति प्रतीत होने वाले ये फूल पुष्पों की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते थे । पर ये झाड़ियों के सूखेपन को ढकने की कोशिश कर रहे थे जैसे कोई फटे वस्त्रों से तन ढकने का प्रयास कर रहा हो ।
खिड़की से बाहर झाँकता वह बालक इस नये परिवेश और वातावरण की झलक में खोया था कि उसे फिर से वही आवाज़ सुनाई दी जिसकी वजह से वह खिड़की से झाँकने आया था । इधर उधर देखते हुए उसका ध्यान बन रहे एक बंगले के बाहर चला गया जहाँ कुछ मज़दूर हैण्डपम्प से पानी खींच रहे थे और सुबह सुबह की ठंड में भी खुले में स्नान कर रहे थे । बालक की उत्सुकता और बढ़ गई थी क्योंकि उसने हैण्डपम्प कभी नहीं देखा था और न ही उसके बारे में सुना था । हैण्ड पम्प से पानी निकलता देखकर वह बहुत अधिक हैरान हो रहा था । अभी तक तो उसने पानी को सिर्फ नल से निकलता देखा था । चाहे स्कूल हो या घर । हाँ, उसे याद आया, जब वह अबोध था और नल से निकलते पानी को पीने लगा था तो उसकी माँ ने उसे टोका था ‘बेटा यह पानी मत पियो, यह पीने के लिये नहीं है, यह बाकी कामों के लिए है ।’ ‘पीने के लिये नहीं और बाकी कामों के लिये’ बालक समझने की कोशिश कर ही रहा था कि एक और सवाल आ अटका ‘पानी तो पानी है फिर यह पानी पी क्यों नहीं सकते ?’ उस समय उसने माँ से पूछ ही लिया था । जवाब मिला ‘बेटा, यह पानी जमीन से निकला है इसमें अनेक ऐसे खनिज तत्व होते हैं जो पानी को पीने योग्य नहीं बनाते । इसे पीने योग्य बनाने के लिए हमने घर में वाटर फिल्टर लगाया है । पानी उसमें से गुजर कर आता है तो शुद्ध हो जाता है फिर उसे पिया जाता है ।’ अब वह ठहरा अबोध । उसे इतना ज्ञान पाने की इच्छा नहीं थी और न ही इतनी बुद्धि कि वह सारा मसला समझ सके । ‘अच्छा’ कह कर वह खेलने के लिए भाग गया था ।
बालक फिर से वर्तमान में लौट आया था ‘सुबह सुबह इतने ठण्डे पानी से नहा रहे हैं ये लोग, इन्हें ठंड नहीं लगती, नहाने के लिए मम्मी तो मुझे गरम पानी देती है ?’ बालक के मन में फिर एक सवाल उठा था । इससे पहले कि इस सवाल का उत्तर कोई दे पाता उसने देखा कि वही पानी वे लोग पी भी रहे थे । ‘तो इसका मतलब यह बड़ी सी मशीन जिससे पानी निकल रहा है वह वाॅटर फिल्टर है जैसा एक बार माँ ने बताया था … नहीं …. नहीं …. यह तो मुझे कोई बड़ा सा गीज़र लगता है जिसमें से शायद गर्म पानी निकल रहा होगा तभी तो ये लोग इतने आराम से नहा रहे हैं … पर इसी पानी से नहा रहे हैं और यही पानी पी रहे हैं’ उसके दिमाग के तंत्र में यह सवाल उलझ गया था और वह बाहर मज़दूरों और उनके बच्चों को नहाते देखता ही जा रहा था । ‘छोटे बच्चे भी नहा रहे हैं … यह तो अवश्य ही गीज़र होगा … और अब मुझे समझ में आया कि ये लोग पानी भी गर्म पी रहे हैं क्योंकि माँ भी तो कहती है कि सर्दियों में कम से कम गर्म पानी पीना चाहिए’ खुद ही उत्तर देकर उसे कुछ सांत्वना मिली थी ।
‘गिरीश … गिरीश बेटा …’ उसके कानों में माँ की आवाज़ आई थी । आवाज़ सुनते ही वह आवाज़ की ओर जाने के लिए पलटा पर फिर वापिस पलट गया । ‘मैं माँ की आवाज़ सुनकर जाऊँगा तो माँ यहाँ नहीं आयेगी और मैं पूछ नहीं पाऊँगा । अगर मैं नहीं जाऊँगा तो माँ मुझे यहाँ बुलाने ज़रूर आयेगी‘ बालक की बुद्धि ने सोचा और वह फिर से खिड़की के पास ही ठहर गया । अब उसे प्रतीक्षा थी माँ के आने की । जैसा सोचा था वैसा ही हुआ । उसे पुकारते-पुकारते माँ वहाँ गई थी । ‘बेटा इतनी आवाज़ें लगाईं, तूने एक भी नहीं सुनी क्या ? वहाँ क्या कर रहा है ?’ कहते-कहते माँ खिड़की के पास खड़े गिरीश के पास आ गई । बजाय इससे कि वह माँ के सवालों का उत्तर देता उसने कहा ‘इधर आओ माँ, वह देखो, कितना बड़ा गीज़र जिसमें वाटर फिल्टर भी है … देखो तो बच्चे और बड़े उससे नहा रहे हैं और पानी भी पी रहे हैं !’ बालक की बात सुनकर माँ ने एक पल खिड़की से झाँका और कहा ‘अरे बेटा, वह तो हैण्डपम्प है जिसके जरिये वह जमीन से पानी खींच रहे हैं । ये सब मज़दूर हैं । बहुत मेहनत करते हैं । इन पर सर्दी का असर नहीं होता । ये सभी अपने अपने गाँवों से आये हैं और यहाँ मकान बनाने में मज़दूरी करते हैं । इनके बच्चे भी काम में इनका हाथ बँटाते हैं । और जिस हैण्डपम्प की मैं बात कर रही हूँ उसमें सर्दियों में जो पानी आता है वह हलकी सी गर्माहट लिये होता है और गर्मियों में यही पानी शीतलता लिये होता है ।’ ‘हैण्डपम्प !!! अच्छा !!! पर माँ, गाँव किस जगह का नाम है ?‘ ‘पिछले साल जब हम हिमाचल प्रदेश घूमने गये थे तो वहाँ खेत भी देखे थे, बहुत सारे पेड़ थे, नदी भी थी, खेतों के आसपास गाँव वालों की झोंपड़ियाँ भी थीं … ओहो … बेटा अब तुझे कैसे समझाऊँ … अच्छा तू टीवी पर फिल्में देखता हैं न … कभी-कभी उसमें कुछ सीन आते हैं जिसमें बहुत सारे पेड़-पौधे, खेत, नदियाँ, झरने और गाय-बैल, भैंसें, भेड़ें आदि दिख जाती हैं उस जगह को गाँव कहते हैं’ माँ ने समझाने का प्रयास किया था । ‘अच्छा माँ, जब हीरो-हीरोईन गाना गाते हैं बड़े-बड़े पेड़ों के आसपास और कुछ डांसर सिर पर टोकरी में फूल उठाये आ जा रहे होते हैं … या कभी-कभी सिर पर घास के बंडल उठाए होते हैं … वही जगह … उसे गाँव कहते हैं … वाह कितनी सुन्दर जगह है गाँव … माँ हम भी उसी जगह पर रहेंगे … आप पापा से कहो वहाँ मकान ले लें … हम सब वहीं रहेंगे … कितने खूबसूरत सीन होते हैं … बहुत मज़ा आयेगा ।’
‘तू ठीक कह रहा है … हम वहाँ घूमने तो जा सकते हैं पर शायद रह न पायें । और यह भी बता देती हूँ कि हमारा यह मकान भी तो गाँव में ही है’ माँ ने कहा । गिरीश ने पूछा ‘वह कैसे, माँ ?’ ‘वह ऐसे कि जिस जगह हमारा मकान बना है और आसपास के मकान बन रहे हैं, उस जगह पहले गाँव ही था पर अब इसका रूप बदलता जा रहा है । गाँव शहरों में बदलते जा रहे हैं । पेड़ कटने और पक्के बंगले बनने के बाद गाँव होने के बाद भी यह पारम्परिक गाँव नहीं लग सकता । हम जहाँ रहने आये हैं ये शहर कहलाता है । अब गाँवों में शहर मिल गये हैं । ये गाँवों में बसते शहर हैं ।’ ‘गांवों में शहर मिल गये हैं … क्या यह वैसी मिलावट है जब दूध में पानी मिला देते हैं … माँ तुमने बताया था न कि दूध में पानी की मिलावट करके लोग बेचते हैं फिर दूध शुद्ध नहीं रहता … तो इसका मतलब हम मिलावटी जगह पर रहने आये हैं । जब गाँव में ही रहना था तो शुद्ध गाँव में क्यों नहीं रहने आये । शुद्ध गाँव क्या सेहत के लिए ठीक नहीं होता ? जैसे किसी ने एक बार पापा को कहा था कि दूध में पानी मिलाकर पतला कर के पिया करो तो हजम हो जायेगा । इसीलिए शुद्ध गाँव में शहर की मिलावट वाली जगह पर पापा हमें रहने के लिए लाये हैं ?’ माँ उसे हैरानी से देखती ही रह गयी थी । ‘ठीक ही तो है, आजकल इन शहरों में शुद्ध चीजें कहाँ मिलती हैं ? सब कुछ मिलावटी … और अब तो रहने की जगह भी मिलावटी … हा …हा…हा !’
बालक का मन कई उत्सुकताओं से घिर गया था । नाश्ता करके वह घर से बाहर निकला और जा पहुँचा उसी हैण्डपम्प के पास जहाँ अब उन मज़दूरों के बच्चे मज़े से नहा रहे थे । वह उन्हें एकटक देखता रहा । बच्चे जब नहा चुके तो उनका ध्यान बालक गिरीश की ओर गया । उन्हें खुद में और गिरीश में अन्तर नज़र आया जैसे कोई आदिवासी बाहरी लोगों से मिल रहे हों । गिरीश थोड़ा मुस्कुराया और उनसे मिलने आगे बढ़ा । बच्चे भी उसे देखकर मुस्कुराए । एक यही भाषा थी जो दोनों समझ सकते थे । उसे देख बच्चे अपने गाँव की भाषा में बोले ‘कौन हो तुम ?’ हालाँकि यह हिन्दी भाषा थी पर सुनने में कुछ अलग सी थी फिर भी गिरीश समझ गया । ‘मैं गिरीश, सामने रहने आया हूँ’ गिरीश ने कहा । सुनकर वह बच्चे थोड़ा खिलखिलाए । गिरीश ने उनसे आगे बढ़कर हाथ मिलाया । वे बच्चे खुशी से चहचहाए और उन्होंने हँस कर गिरीश का अभिवादन किया । गिरीश की जेब में टाॅफियाँ थीं जो उसने उन बच्चों को दीं । वे बच्चे खुश हुए । ‘तुम इस पानी से नहाते हो और इसी को पीते हो … तुम्हें ठण्ड नहीं लगती क्या … तुम यह पानी पीकर बीमार नहीं होते क्या …’ बच्चों के पहनावे और उनकी सेहत ने उसके दोनों सवालों के जवाब दे दिए थे । ‘ओफ्फो … मैं भी क्या सोच रहा हूँ, इन्हें ठण्ड लग रही होती तो ये काँप रहे होते और मेरी तरह गर्म कपड़े पहने होते … और फिर यही पानी पीकर कितना अच्छा स्वास्थ्य है इनका … माँ मुझे यूँ ही डराती हैं!’ खुद से बोला गिरीश । ‘अच्छा, मैं कल फिर आऊँगा, तुम सब कहाँ रहते हो ?’ ‘जब तक यह मकान बनेगा हम यहीं रहेंगे’ बच्चों ने जवाब दिया । ‘फिर ?’ गिरीश ने पूछा । ‘फिर हम अपने गाँव चले जायेंगे’ बच्चों ने जवाब दिया । ‘गाँव … माँ तो कह रही थी यही गाँव है ! ’ गिरीश सोचते सोचते कहीं खो गया था ’पर माँ ने यह भी कहा था कि गाँवों में बसते शहर’ ‘तुम्हारे गाँव में भी शहर है?‘ गिरीश ने बच्चों से पूछा । ‘शहर क्या होता है ? हमें नहीं पता … पर तुम हमारे गाँव चलोगे ?’ बच्चे उससे पूछ रहे थे । ‘शहर …. शहर … कैसे समझाऊँ तुम्हें … माँ समझायेगी … पर मैं जरूर चलूँगा तुंम्हारे गाँव’ गिरीश चहक कर बोला और मन ही मन कहने लगा ‘माँ से कहूँगा मुझे इन बच्चों के गाँव घुमा लायें … शुद्ध गाँव … फिर देखूँगा कि शुद्ध गाँव कैसे होते हैं और क्या इनके गाँव में भी शहरों की मिलावट होने लग गई हैं?’ फिर अपनी काॅपी में लिखूँगा ।
आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. एक बालक के मन में अनेक जिज्ञासाएं जन्म लेती रहती हैं. उसे जीवन में बहुत कुछ देखना होता है. रोजमर्रा से हटकर बालक जब स्वयं को एक नए परिवेश में पाता है तो उसकी उत्सुकताएं असीम होती हैं. वर्तमान रचना में बालक परिवार के साथ एक ऐसे स्थान पर रहने आया है जो गांव का शहर में बदलता स्वरुप है. बदलने की इस प्रक्रिया में कई बातें उसकी उत्सुकता बढाती हैं जिनका हल ढूंढने वह गांव के बालकों से मिलता है और उनकी बातें सुन कर आश्चर्यचकित होता रहता है. इसी ताने बाने पर बुनी गयी है यह कथा. आपको यह घटना रुचिकर लगी मेरी लेखनी सफल हुई. पुनः सादर प्रणाम.
प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, क्या ग़ज़ब का लिखते हैं आप! गांव की बात हो, तो ‘ढिंचक … ढिंचक …’ से ध्यान बैलगाड़ी की तरफ जाता है, पर यह तो हैण्डपम्प से पानी निकालने की आवाज थी. प्रकृति का मनोरम वर्णन, बालक की मनोहारी जिज्ञासा, शुद्ध गाँव बनाम मिलावटी गाँव की बात, समृद्ध साहित्यिक भाषा, सब कुछ अद्भुत लगा. बहुत सुंदर कहानी के लिए आप बधाई के पात्र हैं.