कहानी

मंगलवार का प्रसाद

‘कहाँ जा रहा है तू ?’ गंजू ने दौड़ कर जाते हुए संजू से पूछा। ‘मन्दिर’ दौड़ते दौड़ते ही संजू ने जवाब दिया। गंजू ने तेज़ दौड़ लगाकर संजू की कमीज पकड़ ली। संजू गिरते गिरते बचा। ‘क्या है … पकड़ा क्यों है … बता तो दिया था मैं मन्दिर जा रहा हूं’ संजू बौखलाया। ‘पर भागता हुआ क्यों जा रहा था … ऐसी क्या बात हो गई ?’ गंजू ने कहा। ‘तू भूल गया … आज मंगलवार है … आज के दिन एक बहुत बड़ा सेठ मन्दिर में आता है और खूब सारी चीजें़ बाँट कर जाता है … अगर देर कर दी तो बहुत सारी चीजें खत्म हो जायेंगी। वैसे भी लम्बी लाईन लग जाती है। पहले ही देर हो रही थी और अब एक तो तूने आवाज़ लगा दी, फिर पकड़ कर रोक लिया। छोड़ मेरी कमीज … फट जायेगी … तूने चलना है तो चल … अब तो तेजी से भाग कर जाना पड़ेगा’ संजू ने गंजू को डाँट लगाई। ‘चलो भागो …’ कहते हुए दोनों ही मन्दिर की ओर दौड़ पड़े। रामभक्त हनुमान जी के इस मन्दिर में हर मंगलवार को बेकाबू भीड़ होती है। अनेक भक्त तरह तरह के प्रसाद चढ़ाते और फिर मन्दिर के बाहर गरीबों में बाँटते। बहुतेरे भक्त अपनी गाड़ियों में खाने का काफी सामान लाते और लाइन लगवा कर बाँटते। लाइन में लगे प्रसाद पाने वाले लाइन में तो जरूर लगे रहते थे पर एक दूसरे को ऐसे पकड़े रहते थे कि बीच में कोई जगह न बचे ताकि कोई अन्य आकर उस में न घुस जाये। जब दानी लोग प्रसाद बाँटना शुरू करते तो लाइन में हलचल शुरू हो जाती। सबसे पीछे खड़ा अपने से आगे वाले को हलका सा धक्का भी मारता तो उसका प्रभाव लाइन में सबसे आगे खड़े तक पहुँचता ठीक वैसे ही जैसे बिना इंजन की खड़ी रेलगाड़ी में जब इंजन आकर लगता है तो सभी डिब्बे हिल जाते हैं। कभी कभी तो इस धक्के में इतना बल का प्रयोग होता है कि सबसे आगे वाला गिरता गिरता बचता है और चिल्लाता है ‘ठीक से नहीं खड़े हो सकते तुम’।

यूँ तो अनेक भक्त प्रसाद बाँट रहे थे। पूड़ी-आलू की सब्जी का प्रसाद सबसे ज्यादा बँटता था। इस प्रसाद से वहाँ प्रसाद पाने वालों की क्षुधा शांत हो जाती थी। प्रसाद पाने वालों को स्वाद की नहीं पेट भरने की चिन्ता होती है। कुछ प्रसाद पाने की इच्छा रखने वाले ऐसे भी थे जो लाइन में खड़े नहीं हो सकते थे। वे मन्दिर के सामने सड़क किनारे पटरी पर बैठे थे। यदि कुछ दानी भक्तों की दयालु नज़र उन पर पड़ जाती जो वे उन्हें वहीं जाकर प्रसाद दे आते और वे काँपते हाथों से प्रसाद पकड़ते। अक्सर प्रसाद काफी गर्म होता था क्योंकि कुछ दानी भक्त मन्दिर के बाहर स्थित हलवाई की दुकान से ताज़ा ताज़ा प्रसाद बनवा कर बाँटते। पर मुश्किल यह थी कि पत्ते के बने दोनों में प्रसाद पकड़ना प्रसाद पाने वाले के लिए रोहित शेट्टी के शो ‘खतरों के खिलाड़ी’ के खतरनाक स्टंट से कम नहीं होता था। गर्म पूड़ी और सब्जी का दोना हाथ में आते ही उसकी गर्माहट से हथेलियाँ जल उठती थीं। एक हथेली से दूरी हथेली में और दूसरी हथेली से पहली हथेली में पलटते पलटते बुरा हाल हो जाता था। बीच बीच में फूँक भी मारते रहते। अब दानी सज्जनों का इस ओर तो ध्यान जाता नहीं था। वे तो बस प्रसाद खत्म होने तक जल्दी जल्दी बाँटते रहते और खत्म होते ही निकल जाते। उधर जब हथेलियाँ प्रसाद की प्रचण्ड गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पातीं तो उंगलियों से गर्म पूड़ी और सब्जी का निवाला बनाकर मुँह में डाला जाता जो बहुत देर से प्रसाद पाने की प्रतीक्षा कर रहा होता था। उंगलियां भी जैसे जल जातीं थीं। पर जैसे ही गर्म निवाला मुँह में जाता तो मुँह खुला ही रह जाता और कभी कभी जलन से कराह उठता था तथा जलन को शान्त करने के लिए खुले मुँह से जोर जोर से साँस ली जाती जिससे कि निवाला ठंडा हो जाये। फिर जैसे तैसे उसे पेट की अग्नि को शांत करने के लिए निगल ही लिया जाता। चबाने का मतलब होता कि मुँह ही जल जाये। मुँह से होता हुआ गर्म निवाला जब अन्दर की ओर बढ़ता तो खाने की नली भी जल उठती और मुँह को कोसती। मुँह बेचारा भी क्या करता। वह तो पहले ही जल चुका होता था। इधर जब खाना पेट में पहुँचता तो भूख की अग्नि गर्म निवाला पहुँचते ही शान्त होने के बजाय बिफर उठती ‘आग में आग कौन डालता है ?’ शरीर में गरम प्रसाद की गर्मी का ताण्डव नृत्य होता। पेट कराह उठता ‘भूख शान्त करने के बजाय जलाने की यह सजा क्यों ?’ ‘जो मिल रहा है उसे संभालो, हम सबकी किस्मत में यही लिखा है’ हाथ मुंह उसकी कराहट पर बोल उठते। चूँकि अनुभवी लोगों के लिए यह अनुभव पहला नहीं होता था कुछ अनुभवी प्रसाद पाने वाले अपने साथ पहले ही कुछ व्यवस्था कर लाते थे। उनके मैले-कुचैले थैलों में प्लास्टिक के पुराने बर्तन होते थे और साथ में प्लास्टिक की बोतल में पानी। बर्तन साफ नहीं होते थे पर इसकी उन्हें चिन्ता नहीं होती थी। वे तो बस उसे अपने कंधे पर पड़े अंगोछे से पोंछ कर तसल्ली कर लेते थे कि बर्तन साफ हो गया। इसी तरह प्लास्टिक की बोतल में बंद पानी जो न जाने कब का भरा होता था वही पीते थे। पर उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँच चुके वृद्ध जल्दी जल्दी प्रसाद बाँटने वालों के गति से तालमेल नहीं बैठा पाते और बर्तन होते हुए भी उन्हें गर्म दोने पकड़ने पड़ जाते। जीवन जीने की जंग में कितने घाव सहने पड़ते हैं ये कोई इनसे पूछे। कोई घर परिवार तो है नहीं जहाँ बिठा कर आराम से भोजन करवाया जाये।

जब आलू-पूड़ी का प्रसाद खा लेने के बाद पेट जैसे तैसे भर लिया तो और खाने की गुंजाइश नहीं होती तो और बँट रहे प्रसाद का क्या करें। कोई गाय-बैल तो हैं नहीं जो एक बार खूब सारा भर लें और बाद में बैठ कर जुगाली करते रहें। पर फिर भी पेट भरने के बाद प्रसाद पाने वाले वहाँ से हट नहीं जाते और वे बार-बार प्रसाद की लाइनों में लगते हैं। इस बार उनके पास प्लास्टिक की थैलियां होती हैं जिनमें वे प्रसाद भरते जाते हैं। एक ही थैली में पूड़ी, आलू और कभी कभी हलवा यानि मिक्स्ड प्रसाद। बाँटने वालों के पास इतना समय कहाँ कि वे अलग-अलग थैलियों में प्रसाद दें। लेने वालों की मजबूरी होती है। वे गर्मागर्म पूड़ी के करारेपन को गर्म आलू की सब्जी में डूबते देख रहे होते हैं कि इतने में हलवा छपाक से आ पड़ता है। मजबूरी जो कराये वह कम। शायद यहीं से आइडिया लेकर कुछ बिस्कुट निर्माताओं ने 50ः50 बिस्कुटों का उत्पादन किया होगा जिसमें मीठे और नमकीन दोनों का स्वाद होता है। कुछ नौजवान भी प्रसाद बाँट रहे होते हैं पर वे आलू-पूड़ी न होकर बिस्कुट के पैकेट होते हैं। उन्हें भी भर लेने की लालसा तीव्र होती है। कभी कभी तो वे हाथ से खींच लिये जाते हैं और बाँटने वाले देखते ही रह जाते हैं। लेने वाले जब कभी चाय पियेंगे तो साथ में यही बिस्कुट काम आयेंगे। कितना सोचना पड़ता है इन प्रसाद पाने वालों को, प्रसाद बाँटने वालों से भी अधिक।

गंजू और संजू भी अपना पेट आलू-पूड़ी से भर चुके होते हैं। उन्हें तो इन्तज़ार है सेठ जी के आने का। इतने में संजू अपनी निकर की जेब में हाथ डालता है। ‘जेब में क्या है ?’ गंजू पूछता है। जवाब में संजू जेब से निकाल कर हवा में लहराते हुए ‘अरे ये खाली थैली है, प्रसाद इकट्ठा करने के लिये’। ‘तू तो बड़ा समझदार है, मुझे तो यह आइडिया ही नहीं आया, एक और है तेरे पास’ गंजू अनुनय विनय करते हुए बोला। ‘नहीं’ जवाब मिला। उसे इस बात की ईष्र्या होने लगी थी कि संजू तो आज ज्यादा प्रसाद इकट्ठा कर लेगा। वह इधर उधर सड़क पर देखने लगा कि शायद कोई थैली मिल जाये। उसकी निगाह एक थैली पर गयी जिसमें कुछ मिला जुला प्रसाद पड़ा था। उसने तुरन्त वह थैली उठाई और उसे उलट दिया। यानि बाहर का हिस्सा अन्दर और अन्दर का हिस्सा बाहर जिससे प्रसाद बाहर फेंका जा सके। फिर उसने प्रसाद किनारे लगे डस्टबिन में फेंक दिया और अब बाहरी हिस्से को हाथों से पोंछ लिया। थैली साफ हो गई पर हाथ सन गए थे जिसे उसने अपने निकर से पोंछ लिया। अब गंजू को भी तसल्ली हो गई थी कि वह भी प्रसाद इकट्ठा कर लेगा।

‘सेठ जी की गाड़ी अभी तक नहीं आई। आज प्रसाद पाने वाले भी ज्यादा हैं। संजू तू ऐसा कर वहाँ दूर जाकर खड़ा हो जा। जैसे ही तुझे सेठ जी की गाड़ी नज़र आये तू मुझे इशारा कर दियो और फिर भाग कर आ जाइयो, मैं सबसे आगे खड़ा हो जाऊँगा और तेरे आते ही तुझे भी अपने आगे लगा लूँगा। कोई पूछेगा तो कह दूँगा कि मुझे कह कर गया था।’ गंजू ने आइडिया दिया। ‘ओके’ कह कर संजू भाग कर दूर चला गया और एक जगह जाकर ऐसे खड़ा हो गया जहाँ गंजू भी नजर आता रहे और आती हुई सेठ जी की गाड़ी भी। कुछ ही पलों में संजू को सेठ जी की गाड़ी नज़र आई और वह योजना के अनुसार हाथ उठाता हुआ गंजू की तरफ भाग पड़ा। गंजू ने भी लाइन लगाने का उपक्रम किया। पर औरों को क्या मालूम कि क्या हो रहा है। गंजू ने पीछे मुड़कर देखा तो लाइन में वह अकेला ही था। इतने में संजू भी आ गया और लाइन में अब दो जने हो गये थे। ‘आज मजा आयेगा’ दोनों ही खुशी से कह रहे थे। इतने में सेठ जी की तथाकथित गाड़ी फर्राटे से उनके पास से निकल गई। ‘यह क्या, आज सेठ जी ने प्रसाद नहीं बाँटा’ संजू बोला। ‘अबे तुझे पक्का पता है वह सेठ जी की गाड़ी थी’ गंजू बोला। ‘हाँ, सेठ जी की गाड़ी ऐसी ही है’ संजू बोला। ‘ऐसी ही है का क्या मतलब, ऐसी तो कई गाड़ियां हो सकती हैं, तुझे गाड़ी का नम्बर नहीं मालूम’ गंजू बौखलाया। ‘तू तो ऐसे कह रहा है जैसे तुझे नम्बर पढ़ना आता हो, तू पढ़ सकता है गाड़ी का नम्बर, बता सामने वाली गाड़ी का नम्बर क्या है?’ संजू ने पलट कर कहा। ‘यार कह तो तू ठीक रहा है, हम पढ़े लिखे तो बिल्कुल भी नहीं हैं। अभी से हमारा यह हाल है तो बड़े होकर क्या होगा ? हमसे कौन शादी करेगा ? अगर हो भी गई तो हमारे बच्चे भी क्या यहीं लाइनों में लगेंगे ?’ गंजू ने भविष्य की कल्पना संजू से साझा की थी। ‘कह तो तू ठीक रहा है गंजू, कुछ सोचना पड़ेगा’ संजू ने सिर खुजाया। वे यह सब सोच ही रहे थे कि सेठ जी की गाड़ी आ गई और लाइन लग गई। शोर-शराबे से दोनों का ध्यान टूटा तो देखा कि सेठ जी की गाड़ी में लाया गया प्रसाद बाँटा जाने लगा था। लम्बी लाइन लग चुकी थी और वे लाइन से बाहर थे। आज की सोच ने उनकी प्रसाद लेने की इच्छा पर आक्रमण कर दिया था। प्रसाद पाने की इच्छा छोड़ वे गाड़ी में बैठे सेठ जी के पास गये और उन्हें नमस्ते की। ‘अरे बेटा, प्रसाद बँट रहा है, जाकर ले लो’ सेठ जी ने प्रेम से कहा। पर वे वहीं खड़े ही रहे। ‘क्या बात है बच्चो, तुमने प्रसाद नहीं लेना क्या’ दयालु सेठ ने फिर पूछा। ‘सेठ जी, प्रसाद तो लेना है मगर वह नहीं जो आप बाँटते हैं, हमें कुछ और चाहिए’ दोनों बोले। ‘बेटा, अगर तुम सोच रहे हो कि मैं प्रसाद में तुम्हें पैसे दूँ तो यह न हो सकेगा, मेरे असूल के खिलाफ है’ सेठ जी ने फिर कहा। ‘नहीं सेठ जी, हमें पैसे भी नहीं चाहियें’ दोनों ने एकसाथ कहा। ‘तो बच्चो, फिर क्या चाहिए?’ सेठ जी ने उत्सुकता से कहा। ‘सेठ जी, हम दोनों पढ़ना चाहते हैं, आप हमारे पढ़ाने की व्यवस्था कीजिए’ दोनों ने फिर एकसाथ कहा। ‘क्या … क्या बात है’ कहते हुए सेठ जी गाड़ी से उतर आये। उन्होंने संजू और गंजू से कहा कि उनकी उम्र के जो भी बच्चे हैं उन्हें इकट्ठा करो। वे दोनों भाग-भाग कर हमउम्र बच्चों को इकट्ठा कर लाये। 10-12 बच्चे इकट्ठे हो गये थे। सेठ जी ने उन सभी के बारे में जानकारी ली और पूछा ‘तुम में से कौन-कौन पढ़ना चाहता है ?’ सभी के हाथ एकसाथ उठ गये। सेठ जी हैरान रह गये। ‘यह मैं क्या प्रसाद बाँटता रहा आज तक, इन दोनों बच्चों ने मेरी आँखें खोल दी हैं, इस प्रसाद के साथ साथ मैं प्रण करता हूँ कि अब मैं शिक्षा का प्रसाद भी बाँटूंगा’ सेठ जी ने मन ही मन कहा। ‘बच्चो, तुम्हारे घरों के पास जो स्कूल है, वहाँ कल सुबह तुम मुझे मिलो, मैं तुम्हारा स्कूल में प्रवेश कराऊँगा और पढ़ाई का पूरा इन्तज़ाम करूँगा। तुम खूब मन लगाकर पढ़ना और बड़े होकर मेरी तरह बनना’ कहते कहते सेठ जी नरम हो गये थे। ‘हम भी आप बन सकते हैं’ बच्चों ने एकदम पूछा। ‘हाँ, क्यों नहीं, अगर तुम पढ़ लिख गये तो मेरे से भी ज्यादा आगे बढ़ जाओगे’ सेठ जी ने उत्साहवर्द्धन किया। ‘वाह, चलो भई चलो, हम सब कल सुबह स्कूल में मिलेंगे’ कहते हुए बच्चे वहाँ से चले गये। ‘अरे, प्रसाद तो लेते जाओ’ सेठ जी मुस्कुरा कर बोले। ‘नहीं सेठ जी, आज जो आपने प्रसाद बाँटा है उस प्रसाद को तो हम भी कुछ समय बाद बाँटेंगे और आपको हमेशा याद करेंगे’ बच्चे आह्लादित थे। ‘बच्चो, आज मैंने नहीं तुमने मुझे प्रसाद बाँटा है, अगर तुम न कहते तो मेरे चक्षु नहीं खुलते। आज तुमने मुझे जीवन में मंगलवार का बहुत बड़ा प्रसाद दिया है कहते हुए सेठ जी अपनी आँखें पोंछने लगे थे।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

2 thoughts on “मंगलवार का प्रसाद

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, मंगलवार भी अनगिनत देखे, मंगलवार का प्रसाद के नजारे भी अनगिनत देखे, लेकिन मंगलवार के प्रसाद का ऐसा जीवंत नजारा भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना से परे था. आपकी अद्भुत लेखनी ने यह अद्भुत नजारा भी दिखा दिया. हर एक पात्र के अलग-अलग मनोविज्ञान के दर्शन से हमें भी मंगलवार का प्रसाद मिल गया. बहुत सुंदर कहानी के लिए आप बधाई के पात्र हैं.

    • सुदर्शन खन्ना

      आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. आपने इस ब्लॉग को अत्यंत मनोयोग से पढ़ा और अपने ख़ूबसूरत विचार प्रकट किये. मेरा मानना है कि हमें अपनी भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन उन्हें रोज़ी रोटी या केवल भूख मिटाने के पदार्थ दान में देकर करने के बजाय उन्हें ऐसा मार्ग दिखाना चाहिए जिससे वे अपने पैरों पर खुद खड़े हो सकें और समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें. इस विचारधारा को ध्यान में रखते हुए यह रचना रचित की गयी है. आपको यह रचना सारगर्भित लगी इससे मेरी लेखनी सफल हुई. पुनः सादर नमन.

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