गांव का जीवन
शहर को हुए तो गांव से भी गए,
इक पक्की छत की तलाश में
पेड़ों की छाँव से भी गए,
दूध ,लस्सी छाछ से बेगाने हुए
चाय, कॉफ़ी , कोक के दीवाने हुए,
गांव की चौपाल में, करते थे–
दुःख सुख की बाते,
अब तो सिनेमा क्लब और माल में-
होती हैं ‘मतलबी’ मुलाकातें,
पीते थे कुएं,नल कूप की का मीठा ताज़ा जल-
बंद बोतल का पानी अब बन उसका गया विकल्प,
पारिवारिक संस्कार अब बे माने हो गए
सांस्कृतिक मेले,पर्व तक अनजाने हो गए,
अब कहाँ वह पुरवा वो चिड़ियों का चहकना,
अब तो ऐ सी, कूलर में बियर पीकर बहकना,
न झांझर ना पायल , न घुंघरू की छन छन,
बस डी जे का शोर, बालाएं नाच रही तन बदन,
भीतर से शहरी जीवन खोखला है, बाहर का दिखावा है,
गांव का जीवन ही सच्चा सुख है, बाकी सब छलावा है,
— जय प्रकाश भाटिया