कविता

सुलक्षिणी बनाम सुकन्या

प्रसन्नता की प्रतिमा थी वह, या खुशियों का गुलदस्ता,
लगी सोचने क्या क्या हो सकता, नाम सुघड़ सुकुमारी का.

बड़ी-बड़ी कजरारी आंखें, सुंदरता की द्योतक थीं,
नाम सुनयना हो सकता है, इसी बात की पोषक थीं.

सुंदर, स्वस्थ, सलोनी सूरत, मनमोहक थी उसकी चाल,
नाम सुदर्शन हो सकता है, दर्शन से जो करे निहाल.

उसका सुमधुर निश्छल हंसना, यह अहसास कराता था,
सुहासिनी हो सकती है वह, हंसना फूल खिलाता था.

उसकी चुस्ती-फुर्ती और फिर, आना-जाना-बल खाना,
मनमोहिनी मानो हो वह, ग़ज़ब था उसका मुस्कुराना.

सादे कपड़ों में वह लगती, परियों की महारानी थी,
सोनपरी हो सकती है वह, लगती बड़ी सयानी थी.

उसे देखकर लगा कि जैसे, उसमें कमी नहीं होगी,
चंदा में धब्बा हो सकता, यह तो फिर निर्दोष ही होगी.

तभी अचानक देखा उसका, एक हाथ ही साथ नहीं,
हाय विधाता! सब कुछ देकर, क्यों नहीं देता हाथ सही.

अभी प्रसन्नता इतनी है तो, कितनी तब होती उसमें!
हाथ अगर दोनों होते तो, पूनम दिखती इस जग में.

उसने सबको सबक सिखाया, मुश्किल में भी हंसने का,
अचला मानो पाठ पढ़ाती, मुश्किल में भी बढ़ने का.

अब तो नाम नहीं पूछूंगी, चाहे जो भी नाम रहा,
सुलक्षिणी उसको मानूंगी, या फिर होगी सुकन्या.

साहस की इस प्रतिमा को कोई, क्या दे सकता नाम भला!
नाम धन्य है इसको पाकर, चाहे विमला हो या कमला.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “सुलक्षिणी बनाम सुकन्या

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लीला बहन , कल सुबह बीबीसी पे एक वैस्ट इंडिया को देखा तो देख कर उस पर गर्व हुआ .उस की दो टांगें ही घुटनों तक कट्टी हुई थीं और वील्चेअर में था और बास्केट बाल खेल रहा था . मज़े की बात यह थी की वोह बहुत खुश और हंस रहा था . उस को देख कर मैंने अर्ध्न्गिनी साहिबा को धीरे धीरे कहा कि दिल हो तो ऐसा हो .उस को अपनी डिसेबिलिटी की कोई चिंता ही नहीं थी . उस को देख कर मैं सोचने लगा की उस से ज़िआदा लक्की तो मैं हूँ जो कम्ज्क्म स्टैंड से चल फिर तो लेता हूँ . इस से एक बात सामने आती है की अपने से नीचे की ओर देखना चाहिए ,खास कर उन लोगों को जो बगैर डिसेबिलिटी की ओर देखे बड़े बड़े काम कर जाते हैं . ऐसी ही अप ने यह कविता लिखी है जो सब का हौसला बढ़ाती है .

  • सुदर्शन खन्ना

    आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. मानस को बतलाना है, साहस किसको कहते हैं, बेशक दिया नहीं इक हाथ, पर होगा वो भी साहसी, जो जीवन में देगा उसका साथ, उनके लिए है अप्रतिम उदाहरण, जिन्होंने गंवाया कोई हाथ, एक हाथ न होते हुए भी, ज़िन्दगी की मुस्कान खिली, साहस की है यह प्रतिमा, नाम स्वयं भी होगा धन्य. हाल ही में पॉवरलिफ्टिंग की प्रतियोगिता में एक प्रतियोगी की एक टांग नकली थी फिर भी उसने सबसे उत्तम प्रदर्शन कर स्वर्ण जीता. बहुत ही सुन्दर कविता, कविता स्वयं धन्य हुई, उन सभी के लिए हिम्मत और साहस का स्रोत जो जन्म से दिव्यांग हैं या किसी दुर्घटनावश इस स्थिति में हैं. अत्यंत सार्थक रचना के लिए हार्दिक आभार.

    • लीला तिवानी

      प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. साहस की ऐसी अद्भुत प्रतिमा का नाम जो भी हो, वह सबको प्रेरणा देने वाली है. आपने भी अद्भुत साहस का अप्रतिम उदाहरण दिया है. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

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