निश्छल प्रेम
भ्रमर कहे कुसुम के कानों में
करती हो तुम हमसे प्रेम निच्छल,
पर मैं तो हूं बादल एक आवारा
ठहरे न एक जगह मन चंचल।
फूलों फूलों पर बैठ लेकर मधुरस
बांधा मैंने सबको अपने प्रेम पाश,
प्रेमालिंगन करूं नित्य सबको मैं
रहती सबको मिलने की आस।
लूटाती मुझ पर सभी मधु रस
मैं भी हूं उनके प्रेम में आसक्त,
क्यों तुम मित्था प्रतीक्षा करती
सभी पुष्प है मेरी अनन्य भक्त।
मेरे प्रेम बंधन में बंध के तुम
स्वयं को ही पहुंचाते हो व्यथा,
युग युग से ही सभी को है विदित
मेरे चंचल अधीर मन की गाथा।
सलज्ज होकर कहा कुसुम ने
कष्ट पहुंचाती तुम्हारी चंचलता,
मैं विवशता में जकड़ी हूँ प्रियतम
प्रतीक्षित रहूंगी लिए व्याकुलता।
ले लो जितनी मेरी अग्नि परीक्षा
कठिन है जलते प्रेमदीप बुझाना,
अवसर पाते ही आना मेरे द्वार तुम
देकर स्पर्श प्रेम का रीत निभाना।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।