ग़ज़ल – शहर
कोहरे की चादर मे लिपटा शहर।
अपने ही दायरे मे सिमटा शहर।
अपने मे गुम, मुंह फेर के बैठा है,
न जाने किस बात पे रुठा शहर।
दिल की मानिंद,धड़कता था कभी,
पत्थरों के कैदखाने मे सिमटा शहर।
कड़ी धूप है, कहीं तो ठण्डी छांव मिले,
दरख़्तों की तलाश मे भटका शहर।
“सागर” किसको पुकारे कौन अपना है,
कहीं सूबों मे कहीं खेमों मे बँटा शहर।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”