कविता

छंदमुक्त कविता – पुरखों का घर

छोड़ चुका था जिस घर को
वर्षौं बाद पुरखों के घर का
दर्शन को आया
छत्रछाया में जिसके
पले बढ़े थे हम सब
जर्जर हो गई दिवारें
दरारें पड़ी हुई जगह-जगह
बीच से निकलते पीपल के पेड़
छतों से चकत्ते-चकत्ते टूटते
सिमेंट के टुकड़े
बदरंग हुई दीवारें
चिकनी गाल पर झुर्रियां
पड़ी हो‌ जैसे
ऐसा लगा जैसे अनैकों कहानियां
दफन है इन दिवारों में
जुबां नहीं उनके पास कि वे
अपनी व्यथा कहें, शिकायत करें
पर, मुझे सब समझ आ रहा है
शिक़ायत है उसकी,जब वह
खूबसूरत था,रंग-रोगन चढ़ा था
सजावट थी,सब ने चाहा,सराहा
पुराना, जर्जर हो गया,सारे
दामन छुड़ा चल‌ दिए,वैसे ही जैसे
संस्कारविहिन सन्तान
अपाहिज,झूर्रीदार,अशक्त वृद्ध से
किनारा कर लेते हैं
मैं खामोश हवेली को देखता रहा
वर्तमान अतीत के वैभवशाली
स्वरूप का गवाह था
हम सब अपराधी ठहरे
पुराने की अवहेलना कर
नवीनता की ओर भागते हैं

मंजु लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।