छंदमुक्त कविता – पुरखों का घर
छोड़ चुका था जिस घर को
वर्षौं बाद पुरखों के घर का
दर्शन को आया
छत्रछाया में जिसके
पले बढ़े थे हम सब
जर्जर हो गई दिवारें
दरारें पड़ी हुई जगह-जगह
बीच से निकलते पीपल के पेड़
छतों से चकत्ते-चकत्ते टूटते
सिमेंट के टुकड़े
बदरंग हुई दीवारें
चिकनी गाल पर झुर्रियां
पड़ी हो जैसे
ऐसा लगा जैसे अनैकों कहानियां
दफन है इन दिवारों में
जुबां नहीं उनके पास कि वे
अपनी व्यथा कहें, शिकायत करें
पर, मुझे सब समझ आ रहा है
शिक़ायत है उसकी,जब वह
खूबसूरत था,रंग-रोगन चढ़ा था
सजावट थी,सब ने चाहा,सराहा
पुराना, जर्जर हो गया,सारे
दामन छुड़ा चल दिए,वैसे ही जैसे
संस्कारविहिन सन्तान
अपाहिज,झूर्रीदार,अशक्त वृद्ध से
किनारा कर लेते हैं
मैं खामोश हवेली को देखता रहा
वर्तमान अतीत के वैभवशाली
स्वरूप का गवाह था
हम सब अपराधी ठहरे
पुराने की अवहेलना कर
नवीनता की ओर भागते हैं
— मंजु लता