मधुगीति – प्रभु कृपा से अभिभूत सब !
प्रभु कृपा से अभिभूत सब, आनन्द अद्भुत पा रहे;
मिल परस्पर उनसे मिले, आशीष उनका भा रहे !
रचते वही गाते वही, गोते वे ही लगवा रहे;
अन्तर में धुन कुछ छेड़ कर, वे ही सुधा सरसा रहे !
आते कभी वे निकट से, नित दूरियाँ मिटवा रहे;
पहचान कुछ २ पा रहे, क्यों आ रहे क्यों जा रहे !
स्वायत्त हृद में विचर कर, यत्नों से रत्न दिखा रहे;
तन्त्रों की सरगम सिहर कर, सुरभित समन्वित कर रहे !
अर्पण कभी दे समर्पण, सामीप्य सुख सम्बद्ध कर;
‘मधु’ माधवी नयनन लखे, उर अल्पना फुहरा रहे !
✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’