वक़्त का न्याय
वक़्त करवट बदलता जरूर ही है … तालियों की गड़गड़ाहट और वन्स मोर-वन्स मोर का शोर साबित कर रहा था कि अन्य प्रतिभागियों-संगियों की तरह उसकी भी रचना और प्रस्तुतितीकरण से दर्शक दीर्घा में बैठे साहित्य प्रेमी आनन्दित हो रहे थे … सत्तरवेँ स्थापना दिवस के अवसर पर कंपनी द्वारा आयोजित काव्योत्सव में सभी झूम रहे थे और मैं अमलतास की सौंध लिए अतीत के गलियारे में टहल रही थी …
“मेरी संस्था, देश के कई राज्यों में अपना नाम कमा रही है अपने कामों की वजह से लेकिन मेरी हार्दिक इच्छा है कि आपके शहर में भी उसको लोग जान जाएं और वहाँ पहुँचें बनाने के लिए आप मेरी मदद कर सकते हैं और पूरी उम्मीद है कि आप मेरी बातों का मान रखेंगी ..।
“जी! कोशिश करता हूँ …, देखती हूँ क्या कर रहा हूँ ..!”
लगातार प्रयास से तारीख पड़ते गए और टलते गए … इस क्रम में दो-तीन साल के बाद वह शुभ दिन आया जब उनकी संस्था का कार्यक्रम मेरे शहर में होने वाला था … काव्योत्सव के लिए सूची बनी … मंच संचालन के के लिए दो नाम मेरे द्वारा प्रस्तावित थे उन्हें विश्वास भी था लेकिन कार्यक्रम के दो दिन पहले उनका शर्त आया कि “मंच संचालन के लिए गठबंधन शुल्क जमा करवा दो ..।”
“क्यों? यह तो पहले से तय नहीं था ..
“आप समझ नहीं रहे हैं! जो सम्मान दिया जा रहा है या जिसे मंच संचालन दिया गया है, वे शुल्क जमा कर चुके होंगे …।”
“मैं जो समझ रहा हूँ वह तुम्हें समझा दूँ कि हमेशा जयचंदों की वजह से मूल्यों की हार होती है …। खैर! कोई बात नहीं ..।”
तय तिथि पर सफल कार्यक्रम के बाद निश्चिनता की लंबी सांस लेते हुए उनका पहला सवाल था कि “वह कार्यक्रम में आई! मंच संचालन नहीं मिल रहा है ..!” अपने शब्दों को जितना विषैला बना सकते थे उससे ज्यादा विष उनके भैंगे आँखों में था … हमारे बीच थंठों का वन पसर गया … स्वर्ण की लंका राख होने से जब रावण ही सीख नहीं पाए पाए .. सामान्य मनु ज्ञान नहीं ले पाते हैं तो आश्चर्य नहीं होता है …