गीत – देख रही बस ओर तुम्हारी
देख रही बस ओर तुम्हारी, सूझे न कुछ, न भाए मुझे।
आए जिस क्षण ध्यान में तुम, कुछ और ध्यान न आए मुझे।।
मनमोहक ये छवि तुम्हारी,
नैनों में यूँ घर कर बैठी।
नींद स्वप्न और चैन हृदय का,
मैं तुमको अर्पित कर बैठी।
नाम तुम्हारा ओढ लिया है, अब श्रृंगार न भाए मुझे।
आए जिस क्षण ध्यान में तुम, कुछ और ध्यान न आए मुझे।।
नियति मेरी प्रीत से कान्हा,
कर कर के थक बैर गई।
झलक स्वप्न में जो देखी,
मुस्कान अधर पर तैर गई।
बिरहन रैन सखी बन बैठी, प्रीत की रीत सिखाए मुझे।
आए जिस क्षण ध्यान में तुम, कुछ और ध्यान न आए मुझे।
लिखनी है पाती नाम तुम्हारे,
प्रेम लिखूंगी प्रेम ही पढ़ना।
कोरे पृष्ठ के कोरेपन की,
एक नई परिभाषा गढ़ना।
शब्द व्याकरण सीखे हाय, भाव न लिखने आए मुझे।
आए जिस क्षण ध्यान में तुम, कुछ और ध्यान न आए मुझे।।