किस बात की खुमारी
बुलबुला है ओस का,ये जिंदगी तुम्हारी।
किस बात है गर्व, किस बात की खुमारी।
टपका था रात में एक नूर धरती पर,
चांदी सा चमका था हीरे का एक कण।
चल पड़ी पुरवाई देखी थी बेकरारी।
बुलबुला है ओस का ये जिंदगी तुम्हारी।
किस बात है गर्व किस बात खुमारी।
चार दिन की चांदनी फिर वही है रात,
बाँट सको तो बाँट लो दुख हरेक के साथ।
आ रही अब नैया मझधार में बेचारी,
बुलबुला है ओस का ये जिंदगी तुम्हारी।
किस बात है गर्व किस बात की खुमारी।
न समझ बन दौड़ रहा मृग मरीचिका पर,
फिसलन बहुत है उसकी ऊपरी सतह पर।
घेर रही अब तो माया की ये बीमारी,
बुलबुला है ओस का ये जिंदगी तुम्हारी।
किस बात है गर्व किस बात की खुमारी।
— निशा नंदिनी