लघुकथा

मर्दानगी

“हेलो.. अनीता.. जब से तुम मायके गई हो तब से मैं यहां परेशान हूं। तुम तो वहां सब के संग बहुत खुश हो न? तुम्हें क्या फर्क पड़ता है मैं परेशान हूं कि नहीं।” चिढ़ते हुए अंशुमान ने अपनी पत्नी से कहा।
“आप ही तो कह रहे थे.. रोज-रोज का चिक चिक आपको अच्छा नहीं लगता है, इसलिए कुछ दिन मायके होकर आओ..ताकि मैं शांति से रह सकूं। अब क्या हो गया? अब क्यों परेशान हो रहे हो?” अनीता ने मजे लेते हुए कहा।
“अरे.. जब से तुम गई हो, रसोई घर में जाते ही पसीने छूटने लगते हैं। खाना बनाना तो दूर की बात.. चाय बनाता हूं तो उसमें कभी शक्कर नहीं.. कभी शक्कर ज्यादा तो कभी चाय पत्ती ज्यादा। ढंग के कपड़े प्रेस किए हुए नहीं मिलते, ऑफिस जाना तो मुश्किल हो गया है। कई बार बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहन के ऑफिस जाता हूं तो सब से नजरें चुरा कर बैठना पड़ता है। ऐसा लगता है सब मुझ पर हंस रहे हैं। अब यह सब मुझसे नहीं होता। तुम जल्दी घर आओ और अपना घर संभालो।” विनती के स्वर में अंशुमान ने कहा।
“क्यों.. मुझे भेजते समय तो बड़े मर्द बन रहे थे, किचन में जाते ही मर्दानगी फुस्स्स..।”जोर जोर से हंसने लगी अनीता।
“खूब हंसो.. हंसो.. मेरी बेबसी पर खूब हंस लो। मर्दानगी तो केवल दिखाने की चीज होती है। जब काम सामने आता है तो मर्दानी ऐसी फुस्स हो जाती है, खासकर रसोई घर में जा कर। कब आ रही हो घर यह बताओ? काश कि मेरे माता-पिता ने भी तुम्हारे माता-पिता की तरह मुझे भी सब काम सिखाया होता तो आज यह नौबत नहीं आती। केवल माता पिता को ही क्यों दोष दूँ, मुझे स्वयं भी तो सीखने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। रसोई घर का काम थोड़ा बहुत सीख लेता तो आज तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर विनती करने आवश्यकता नहीं पड़ती।” मायूसी से अंशुमान ने कहा।
“काश.. ऐसा होता तो मैं भी शांति से कुछ दिन मायके में रह जाती। तुम मुझे बुलाकर परेशान तो नहीं करते।” अनीता पुनः हंस पड़ी।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]