गजल
चैन से जी रही थी क्यूं सताने आ गये।
दिल में घर अपना क्यूं बनाने आ गये।।
मिलता नही करार मुझे पल भर के लिये।
बेचैनी फिर मेरी तुम क्यूं बढ़ाने आ गये।।
वादा किया जो तुमने कभी निभाया नही।
कसमों को तोड़ने के क्यूं बहाने आ गये।।
अजीबो गरीब दास्तां है ये हमारी तुम्हारी।
फैसले के वक्त दिमाग क्यूं ठिकाने आ गये।।
रूठकर भी रूठते नहीं हैं कातिल हमारे।
कत्ल करनें के बाद क्यूं लुभाने आ गये।।
बदनाम हो गये हम हर गली हर मोहल्लें में।
तुम्हारे खत पढ़कर उन्हें क्यूं सुनाने आ गये।।
धुआं जो उड़ा जरा खाक जमाना हो गया।
रूह को भी लोग यहां क्यूं जलाने आ गये।।
— प्रीती श्रीवास्तव