बहस
पुरजोर बहस हुई
कागज़ और कलम में
मोल किसका है ज्यादा?
बिन कलम
मूल्य हीन कोरा कागज़
महज़ चने की पुड़िया
पानी में तैरती बच्चों की नाव,
कागज़ रहित कलम
बढ़ाता जेब की सुंदरता
बालों को खुजलाता
ऐंठता इठलाता।
भिन्न भिन्न रसों को समेटे
कलम की स्याही को
रोशनाई बनाते
बिखरते हैं आखर जब
कलम से कागज पर
रसास्वादन कराते
बिदकते थिरकते हैं।
करते एक नए युग की शुरुआत
रचते इतिहास
ज्ञान का हस्तांतरण करते
प्रगति का पथ दिखाते
कभी मौखिक तो कभी
लिखित बन जाते,
अपने अर्थ के अनुरूप
न घटते, न नष्ट होते
स्थिर हो अमर बन जाते।
बगिया के खिले-खिले फूल
शांति बन महकते हृदय में
अपंग भिक्षुक को देख राह में
हृदय को चीरती करूणा
टपकती कागज पर बनकर आँसू,
सौंदर्य पर मंत्र-मुग्ध होता मन
श्रृंगार की अभिव्यक्ति पर
बेचैन हो ढूंढता कागज़।
देखकर सूत्रधार के हास्य को
मन हंस पड़ता खिलखिलाकर
लिख कर शहीदों की गाथाएं
वीरता बरसाती कलम,
प्राकृतिक आपदा का रौद्र रूप
लिखा इस कलम ने
जघन्य कृत्य का वीभत्स रूप भी
लिखती कागज़ पर ये कलम।
ये कागज़, ये कलम, ये अक्षर,
बनते सब साक्षर
रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह
भय, घृणा, आश्चर्य, निर्वेद
नौ रसों को लिखकर कागज़ पर
कराती अनुभूति कलम
लौकिक-अलौकिक आनंद की।
बहस किस बात की दोनों में
दोनों ही सृष्टि के दो लिंग
जन्म देते रचना को,
दोनों मिलकर
सही हाथों में आकर
हिला सकते हैं दुनिया
गढ़ सकते हैं किला
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता
होते हैं मिलकर
एक और एक ही ग्यारह।
हम दोनों न हो कभी जुदा
सजाते रहें नित नव गुलिस्तां
दोनों की उम्र मिले एक दूजे को
बने सहारा एक दूजे का,
कलम बन रंगते रहो
मेरी सफेदी को तुम
न खत्म हो कभी रोशनाई तुम्हारी
मैं इतिहास बन बाँटता रहूँ
पीढ़ी दर पीढ़ी उपहार
शिक्षा-संस्कृति और ज्ञान का।
— निशा नंदिनी भारतीय