कविता

हिंद का गांव

शरीर बसा दूर देश में
किंतु मन में बसा हिंद के गांव है,
जहां की बोली में सरलता
और जीवन में सहजता का भाव है।

माटी की पगडंडी पर
जब बारिश की पहली बूंदें गिरती है
सोंधी सोंधी महक उसकी
तन- मन को पागल कर जाती है।

मन आंगन में स्नेह की धूप
तन को आह्लदित कर देती है,
फिर खिलकर पुष्प कलियां
रंग बिरंगे चित्र उकेर जाती है।

सहज, सरल, मधुर भाषा
कानों में मधुरस घोल देती है,
इतनी भाषाएं व बोलियां
और कहीं, कहां मिल पाती है।

सुबह, सवेरे जब कोई
संगीत का मधुर तान छेड़ता है
मन चंचल क्षण भर को
शांत होकर वहीं ठहर जाता है।

इतने उत्सव साल भर
भला कौन सा देश मनाता है,
रंग बिरंगे परिधान इतने
कोई भी देश वासी कहां पहनता है।

भाषाएं अनेक फिर भी एक
एकता का मिसाल हिंद की भूमि है,
लगा माथे माटी तिलक
झुक कर किसने अपनी माटी चूमी है।

बहुत पुरानी संस्कृति हमारी
पुरानी अद्वितीय हमारी सभ्यता है,
सोने की चिड़िया जानी जाती
अतुलनीय हमारी यह भव्यता है।

उठता ऐसा भावना का ज्वार
अपना देश तब याद बहुत आती है,
बैठकर दूर देश तब
अपनों की याद बहुत सताती है।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]