गीत
भले नहीं ईश्वर को मानें पर्व न उसके मानें
महापर्व जो लोकतंत्र का इसकी महता जानें।
नीति बनाने वाले हों वे जो खुद इस पर चलते
ऐसे लोगों को चुनने के स्वप्न रहें बस पलते
भेद-भाव जो सदा भुनाते उनसे रहना बचते
उन्हें देखना चाहें आँखें बस हाथों को मलते।
दूषित जिनसे धरा हुई यह तीर उन्हीं पर तानें
महापर्व जो लोकतंत्र का इसकी महता जानें।
सोते रहना ठीक नहीं अब समय जागने का है
औ कर्तव्य मार्ग से देखो नहीं भागने का है
नींद सही से छिटके सारी आँखें अब खुल जाएँ
अपने मत को ठीक व्यक्ति को देने आगे आएँ
शक्ति मिली जो हम लोगों को उसको सब पहचानें
महापर्व जो लोकतंत्र का इसकी महता जानें।
— सतविन्द्र कुमार राणा