व्यंग्य – थूक का दलदल
भयंकर गरमी के बाद भी देश में कीचड़ हो गया है जिसके उन्नीस मई तक दलदल बन जाने की पूरी संभावना है क्योंकि हर दल का नेता दूसरे दल के नेता पर थूक रहा है। देश में थूक का दलदल बनता जा रहा है। डर है कि मेरा देश कहीं इस दलदल में धँस न जाए। राष्ट्रीय स्तर पर थूका जा रहा है-सात चरणों में। शुरूवात में थूँक के हल्के छींटे पड़ते रहे जो अब बौछार बन गए हैं कुछ समय बाद इसकी मूसलाधार भारतीय जनमानस को तरबतर कर दे तो आश्चर्य नहीं। बड़े-बड़े लोग थूक रहे हैं । नेता,नेता पर। भक्त, चमचों पर और चमचे भक्तों पर। सर्वत्र समाजवाद छाया है। समाजवादी तो थूक में भी आग उगल रहे हें जिसकी लपट से महिलाओं के अंतःवस्त्र झुलस रहे हैं।
थूकनेवालों पर दारोगा के कोड़े का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा। वह खिसियाकर थूकनेवालों की नकेल दो-चार दिन के लिए कसता है। पर क्या फायदा? इतने दिनों में थुकैया की थूथन में थूक की तलैया बन जाती है। मौका मिलते ही वह थूक की उल्टी कर देता है।
कुछ थुकैया तो अपनी थूक को अंतर्राष्ट्रीय विस्तार दे रहे हैं। उन्हें एक अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी से प्रेम जो है। सारा संसार आतंकवादी पर थूक रहे हैं और थुकैया आसमान पर । बेचारा थुकैया! भावनाओं के बहाव में अपने ही थोबड़े का सत्यानाश कर रहा है।
थूकने वालों में एक वर्ग है-चाटनेवालों का। थूक कर चाटनेवालों का। कभी-कभी इन्हें अपना थूका हुआ आकर्षक और कीमती लगने लगता है। अचानक उन्हें लगता है कि अब तक जो थूका गया था उसकी तो अच्छी खाद और मिठाई बन सकती है। इसलिए अविलंब वह उसे चाटकर डकार ले लेता है। ऐसे लोग अ’सरदार होते हुए भी सरदार होते हैं। कुछेक तो अपनी औलाद पर न्यौछावर शपथ भी थूक के साथ चटकार जाते हैं।
थूकिए। खूब थूकिए। लेकिन इसका भी ध्यान रखिए की थूकने की मर्यादा हो। किसी पर थूकना अच्छी बात नहीं है। अशिष्टता है। यह सच है कि कीचड़ में ही कमल जन्म लेता है। लेकिन थूक के कीचड़ में कमल नहीं कीड़े पैदा होते हैं। मुझे डर है कि हमारी संस्कृति कहीं इस थूक के दलदल में दफ़न न हो जाए।
— शरद सुनेरी