संस्मरण

अतीत की अनुगूंज – ३ : नॉत्रे दाम में

आज से सात दिन पूर्व ,१५ अप्रैल ,२०१९  का दिन विश्व इतिहास का एक काला दिन कहा जायेगा।  पेरिस का नॉत्रे दाम  चर्च भीषण अग्नि कांड में ध्वस्त हो गया।  सैकड़ों अग्निशामक अपनी अटूट मेहनत और साहस के साथ रात दिन आग बुझाने में लगे रहे परन्तु फिर  भी चर्च के प्रमुख प्रासाद को बचा नहीं पाए। हाँ कुछ विशिष्ट प्राचीन धरोहरें निकाल ली गईं। जिनमे माँ मेरी की प्रतिमा भी है।  चर्च की सबसे अधिक दर्शनीय वस्तु इसकी गोल खिड़की थी जिसमे कांच के रंगीन शीशों से जीसस क्राइस्ट की जीवनी चित्रित की गयी थी। अग्नि नियंत्रकों ने इसे बचा लिया।
        बहुत बचपन में एक उपन्यास अंग्रेजी में पढ़ा था जिसका नाम है ” नॉत्रे दाम का कुबड़ा ”. ( Hunchback Of  Notre  Dame ). यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है जिसे विक्टर ह्यूगो ने १८३१ ई ० में लिखा था।  नॉत्रे दाम का   शाब्दिक अर्थ है ,” आवर लेडी ऑफ़ पेरिस ” जो कि जीसस की माँ के लिए है।  चर्च कैथोलिक सम्प्रदाय का है इसलिए इसमें आराध्या देवी मेरी की मूर्ति स्थापित है जो  शिशु जीसस को गोदी में लिए है। इस चर्च का इतिहास सदियों पुराना है।  कहा जाता है की इसी स्थान पर रोमन काल में जुपिटर का विशाल मंदिर था। यह स्थान क्राइस्ट के जन्म से भी पहले से पूजित स्थल था। सं ११६० ई  में यहां एक नए चर्च का निर्माण शुरू हुआ। और यह १२६० ई में बन कर तैयार हुआ।  इसको पेरिस शहर की निशानी माना जाता है जैसे दिल्ली का लाल किला दिल्ली को दर्शाता है या मुंबई का गेटवे ऑफ़ इंडिया।
        फ्रांस के इतिहास के अनेक अध्याय  इसकी अलंकृत दीवारों में बसते हैं।  । अठारहवीं शताब्दी में हुई जन क्रांति में यह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। उन्हीं दिनों प्रोटस्टेंट धर्म के आगमन से कैथोलिक विचारधारा का ह्रास हुआ और इस चर्च  का  महत्त्व  भी तिरोहित होता गया। मगर जब उन्नीसवीं शताब्दी में नेपोलियन बोनापार्ट सत्तारूढ़ हुआ तो उसने अपने राज्याभिषेक के लिए इसी चर्च को चुना।  इस तरह इसका जीर्णोद्धार किया गया। मगर जन साधारण इसकी ओर से उदासीन रहा।  अचानक १८३१ ई में विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ने इसकी ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया।   तब फ्रांस की सरकार ने इसका खूब शृंगार किया। यह उपन्यास कालजयी रचना है और फ्रांस के इतिहास को दर्शाती है।  धर्म की आड़ में होनेवाले अनाचार का यह सटीक चित्रण करती है।   यह उपन्यास एक विकलांग व्यक्ति की दर्द भरी कहानी है।  अपनी कुरूपता को जानते हुए उसने कभी भी अपनी प्रियतमा पर अपना प्रेम नहीं जताया जो सबसे सुन्दर स्त्री थी और किसी और से प्रेम करती थी।  अंत में जब उस रूपसी की दर्दभरी मृत्यु हुई तो उसका साथ इसी विकलांग जिप्सी ने दिया और उसकी कब्र पर अपने अंतिम दिन तक चिपका रहा।  इस कुबड़े का काम था चर्च के घंटे बजाना।
        इस चर्च में दस विशाल घंटे रखे हुए थे जिनमे से संगीतमय नाद निकलता था।  हर विशिष्ट घटना पर यह घंटे बजाये जाते हैं।  इनमे से सबसे अधिक भारी घंटा  ”इमैनुएल  ” है।  इन घंटों का भी एक अलग इतिहास है। यह चर्च के ऊपरी भाग में रखे  हुए हैं। ” इमैनुएल ” घंटे  का वज़न १० टन ( अनुमानित ) होगा।   अन्य भी ऐसे ही वज़नदार घंटे हैं।  इसलिए इनको बजाने के लिए बेहद कसरती  बदन चाहिए जो की इस कुबड़े जिप्सी का नहीं था।  घंटों को बजाने के अलावा वह पूरे समय चर्च की सेवा में  रहता था जिसके कारण वहां पर घटने वाले हर अपराध को देखता था।  उसके मूक अस्तित्व में कितना कुछ भरा था उसका चित्रण ही इस उपन्यास को सर्वप्रिय बना गया।
         सं १९८० में हम अगस्त की लम्बी छुट्टियों में पेरिस गए।  इतिहास मेरा विषय था अतः टूरिस्ट गाइड में नाम पढ़ते ही मैंने सबसे पहले नोट्रे दाम देखने की इच्छा प्रकट की।  यूं भी मेरी आदत है कि जहां जहां मैं जाती हूँ वहां के धार्मिक स्थल को अवश्य शीश झुकाती हूँ।  इस चर्च में औसतन १२० लाख यात्री प्रतिवर्ष आते हैं।  उस दिन भी बहुत भीड़ थी।  हम दोनों और हमारे तीन बच्चे।  मैं ,लाल बिंदी से अपने हिन्दू होने का उद्घोष करती आगे आगे।  कंधे से कन्धा अटक जाये ,ऐसी भीड़।  निचले हिस्से का टूर करने के बाद,बच्चे  बाहर जाना चाहते थे  मगर मुझे वह बेल टावर भी देखनी थी।  अतः  ” महाजनो येन गतः सह पन्थाः ”  को चरितार्थ करते हुए  सभी जिस ओर चल रहे थे हम भी पीछे चल पड़े।
         खूब सारी सीढ़ियाँ।  ऊपर ऐटिक में जगह तंग थी।  जत्थों में बाँट बाँट कर यात्रियों को अंदर जाने की अनुमति मिल रही थी।  खैर जी हमारी बारी भी आई।  ‘ इमैनुएल ‘ बेल के एकदम सामने चारों ओर पर्यटक खड़े हुए।  गाइड ने भाषण दिया। इतिहास ,गुणवत्ता ,आदि आदि। फिर वह तनिक रुका।  उसने इधर उधर नज़र डाली। कुछ मिनट सोंचा और फिर मुझे ऊपर अपने पास आने का इशारा किया।  आज्ञावश मैं डेढ़ फुट ऊंचे डायस पर चढ़ी। उसने मेरे हाथ में एक सख्त छड़ी दी और कहा की इस घंटे को बजाओ। मैं जैसे इस दुनिया से ऊपर उठ गयी थी। जादू की पुतली की तरह उसकी आज्ञा का पालन करती गयी।  उसने मेरे हाथों  को घंटे की मोटाई के दोनों तरफ टिका दिया और भीड़ को दिखाने के लिया कहा। याद नहीं ,शायद दो फुट या डेढ़ फुट की मोटाई थी।  फिर उसने समझाया की यदि मैं अंदर की कगार से बाहर की कगार तक छड़ी से बजाऊं तो सातों सुर निकलेंगेा ।   बड़े मनोयोग से मैंने आरोह अवरोह बजाया। सहसा सैकड़ों हाथ ताली बजा रहे थे। उस क्षण में मैं केवल मैं थी। न माँ ,न पत्नी , न बेटी ,न बहू , न कुछ और।  सभी दुनियावी रिश्तों ,कड़ियों से उन्मुक्त। केवल एक आत्मा।  पूर्ण स्वतन्त्र ! मेरे चारों ओर घुटी घुटी प्राचीन दीवारें ,छत आदि नहीं थे। एक व्योम था ,असीम , निःशब्द !
          यह सात्विक अनुभव मेरे अंतस  में आज भी उतना ही जीवंत है।  कभी कभी रिलैक्स करने के लिए एक लम्बी श्वास लेकर आँखें बंद कर लेती हूँ और नोट्रे दाम की ऊपरी मंज़िल में अपने को खोज लेती हूँ।  वहां मेरा भगवान पर विशवास विचरता है।  मेरा कवच !                                       इति
कादम्बरी मेहरा 

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]

One thought on “अतीत की अनुगूंज – ३ : नॉत्रे दाम में

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    नौत्रेदाम चर्च का खूबसूरत इतहास बताया,बहुत अच्छा लगा . २००२ में हम भी गए थे . गाइड ने बताया था कि इस चर्च को हर पैर्स्वासी ने योगदान दिया था, किसी ने पैसे से और किसी ने मिहनत से .

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