ग़ज़ल-शाद मैं करने लगा हूँ
किसी के दर्द का अनुवाद मैं करने लगा हूँ.
किसी को हद से ज़्यादा याद मैं करने लगा हूँ.
कभी मंदिर में जाकर तो कभी मस्जिद में जाकर,
किसी के वास्ते फ़रियाद मैं करने लगा हूँ.
शराफ़त या इनायत या मुहब्बत कुछ भी कह लो,
अब उसकी हर तरह इमदाद मैं करने लगा हूँ.
किसी की हर ख़ुशी में ढूँढकर अपनी ख़ुशी को,
जहाने दिल को फिर आबाद मैं करने लगा हूँ.
जो उससे कहना होता है वो कह देता ग़ज़ल में,
अब उससे इस तरह संवाद मैं करने लगा हूँ.
किसी को ख़ुशियाँ देना भी इबादत है ख़ुदा की,
जो हैं नाशाद उनको शाद मैं करने लगा हूँ.
— डॉ. कमलेश द्विवेदी
मो.9415474674
बहुत खूब