ग़ज़ल
मुझे लोग ग़ज़ल कहने नहीं देते।
सुकूँ से मुझे रहने नहीं देते।।
सवाल-दर-सवालों से उलझता हूँ मैं,
दरीचे से बाहर रहने नहीं देते।
चिन्दियों में बिंदियों का रख़ते ख़याल,
मुझे अपनी रौ में बहने नहीं देते।
ख़ुद तो कहेंगे पर बंदिश यहाँ,
मुझे मेरा रस्ता गहने नहीं देते।
क्या है ‘बहर’क्या है ‘काफ़िया’
‘शेर’के ‘मतला’ से बढ़ने नहीं देते।
अनजान हूँ ‘रदीफ़’ ‘शाहे – बैत’ से,
‘मिसरा’से उधर बहने नहीं देते।
खोया हुआ ‘शुभम’ इस तिलस्मगाह में,
गूँगा बहरापन मेरा सहने नहीं देते।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम‘