शाख ए गुल छेड़ के….
शाख ए गुल छेड़ के नग्में वो गुनगुनाता है।
क्यों गये वक्त सा, खुद को खड़ा दोहराता है।।
किसी शातिर सा वो, वहशी सा जुर्म करता है।
वक्त ए अंजाम पे, मासूम सा घबराता है।।
इसी तन का रहा बरसों बरस गुरूर मुझे।
ये जो तिनके सा भंवर बीच फँसा जाता है।।
हर एक वार का हकदार, फ़क़त तू ही क्यों।
सच यही है कि, सीधा पेड़ काटा जाता है।।
कोई शिकवा नहीं मुँह फेर चले जाने का।
लम्बी फेहरिस्त में एक नाम जुड़े जाता है।।
क्या हुआ, मान ली क्या कैद मुकद्दर उसने।
जो बात सुन के, रिहाई की भी घबराता है।।
वक्त और होश लहर है किसे, दिलचस्पी है।
क्यों इतने गहरे, सच की लाश को दफनाता है।।