स्त्री श्रमिक
“स्त्री श्रमिक”
तपती हूं मैं भी भरी दुपहरी में
बहाती हूं स्वेद तन से,
भीगती हूं बारिश में मैं भी
उठाती हूं सिर पर बोझ,
फिर भी मुझे क्यों कमतर आंका जाता है
मानव तेरी स्वार्थी दुनिया में।
क्या मेरे शरीर का रक्त का रंग लाल नहीं
या फिर स्वेद का रंग कुछ और है।
क्या मैं कम पसीना बहाती हूं
या फिर थक कर चूर चूर नहीं होती।
करती हूं परिश्रम पूरी ईमानदारी से
फिर भी क्यों जीती हूं तिरस्कृत जीवन?
क्यों लगाई जाती है मेरी कीमत
पुरुषों से कम?
अन्याय के विरुद्ध उठती है आवाज तो
क्यों समाज के कानों तक पहुंचने से पहले
उसे दबा दी जाती है?
यह भेदभावपूर्ण व्यवहार
क्यों आज भी व्याप्त है शिक्षित समाज में,
क्यों यौनाचार से पीड़ित है स्त्री
आज भी, मानव के विकसित समाज में।
श्रमिक मैं जहां पर भी हूं,
चाहे सड़क पर काम करते हुए,
चाहे कार्यालय की कुर्सी पर,
या किसी ऊंचे ओहदे पर,
सभी स्थान पर क्यों हूं मैं आज भी
तिरस्कृत, प्रताड़ित, भेदभाव का शिकार?
क्यों पुरुषों की नजरें भेदती है
स्त्री के संपूर्ण शरीर को।
क्यों सहना पड़ता है मुझे
इन कामातुर नजरों के दंश की
असहनीय पीड़ा?
कब फैलेगी स्त्रियों के लिए इन आंखों में
भोर की किरणों जैसी
सम्मान की एक रक्तिम आभा।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।