बाह्य जगत की अनुभवहीनता से बच्चे किसी तरह संधि कर सकते हैं परन्तु जब सवाल अंतर्दृष्टि का आता है तब जो झंझावात मन मस्तिष्क में उपद्रव करता है उसको झेलना कठिनतम कार्य है। मॉरल डिलेमा जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है , बहुत मारक होता है।
हमारी कोठी में सड़क की तरफ एक जामुन का पेड़ था। मई के महीने में उसके मीठे जामुन हमारा स्वर्ग होते थे। हम चार पांच बच्चों की टोली बारी बारी से उसपर चढ़कर पेड़ को झिंझोड़ती। ढेरों जामुन नीचे गिरते और नीचेवाले उनको बटोरते। पूरी गर्मी की छुट्टियां वही पेड़ हमारा क्रिया केंद्र बना रहता। मगर एक मुसीबत थी। बाहर से दोपहर को जब लू के कारण हमको बगीचे में जाना मना होता था, सड़क के बच्चे उसपर ढेले मारकर जामुन गिराते और झाड़ियों में घुसकर बीन ले जाते थे। शाम को जब माली नाली से पानी देने आता तब ढेले पत्थरों को हटाने में उसका समय खराब होता। अक्सर घास काटने वाली मशीन के कांटे टूट जाते। माली शिकायत करता।
घर की हाकिम थीं पिताजी की बुआ। बाल विधवा थीं इसलिए वह सदा हमारे ही घर रहीं और तीन पीढ़ियों के पालन पोषण में उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। माली की शिकायत पर सबकी पेशी हुई। सबने कसम खाई कि पत्थर फेंककर जामुन नहीं तोड़े गए। खैर खूब डाँटने के बाद बुआजी ने एलान किया कि अगर कोई दिखे ऐसा करते तो झट उसको सज़ा दी जायेगी। पकड़वाना हमारी जिम्मेदारी थी।
होनी क्यों न हो। करीब दो हफ्ते के बाद मैं रोज की तरह बाग़ में जामुन तोड़ने गयी। करीब सुबह के ग्यारह बजे थे। मेरी उम्र तब आठ या नौ वर्ष रही होगी। मुझे लगा झाड़ियों में कोई है। वह मुझको देखकर दुबक गया। मैंने देखा एक मेरी ही उम्र का लड़का छुपने की कोशिश कर रहा है। मेरे अंदर का शैतान बोला , ”आओ आओ। फरैन्दे ( लखनवी भाषा में जामुन) यहां घास पर खूब सारे पड़े हैं। जितने चाहो ले जाओ। ”
मेरे स्वर में आश्वासन की मिश्री घुली थी। बालक झट से आ गया। तभी मैंने लपककर उसकी कलाई जकड ली। वह इतना सकपका गया कि डोर से बंधे मेमने की तरह खींचा चला आया। वहीँ से मैंने आवाज़ दी ,”बुआजी बुआजी देखो हमने चोर पकड़ा। यही रोज ढेले मारता है। आज पकड़ा गया। ”
मेरी क्रोधभरी ललकार सुनकर बुआजी रसोई से बाहर आ गईं। लड़के को देखा तो साधारण स्वर में पूछा, ”तू जामुन तोड़ने आता है हमारी कोठी में ? तेरी माँ को पता है ? कुत्ता काट ले तो ? यहां कुत्ता भी रहता है। ”
अबतक वह डरा हुआ था कि सज़ा मिलेगी। मगर बुआजी की मीठी झिड़की सुनकर उसका तनाव पिघल गया और वह सिसक सिसक कर रोने लगा। बोला, ”हम तो झाडी में पिशाब करने गए रहे। ई बहिनजी हमको बुलाईन और कहा आकर जामुन बीन लेओ। जइसन हम पास आये ऊ हमार कलाई धर लीनी अउर मार खिलाय के खातिर इहाँ लै आईं। हमार कउनो गलती नाहीं बहूजी। हमका जामुन वामुन नाही चाही। जाय दीजिये। ”
बुआजी ने प्यार से समझा कर उसे भेज दिया। मैं हक्की बक्की सब देखती रह गयी। उसके जाने के बाद बुआजी ने अपना रौद्र रूप मुझे दिखाया। ” धोखेबाज़ ! पराई जान को बरगला कर पकड़ लाई। आ अभी तुझे बताती हूँ। झूठी ,मक्कार। अभी से तेरी ये चालबाज़ी ? तेरे बाप ने सदा सबका भला किया है और तू ऐसी लंका ? ठहर तेरी माँ को बताती हूँ। सबके सामने नीम के पानी से कुल्ला करवाती हूँ। दया न माया। अभी तो जम्म के खड़ी हुई है। बड़ी होकर राक्षसी बनेगी क्या। तेरी हिम्मत कैसे पडी झूठ बोलने की ? ”
मैंने सोंचा था मैं कोई महान ट्रॉफी जीत लूंगी यहां उलटी मलामत मेरी हुई और वह भी ऐसी कि शब्दशः आजतक याद है। मेरे अंदर की राक्षसी वहीँ मर गयी। वह डाँट एक उपदेश बनी। यहीं से सीखा कि जामुनों से अधिक कीमत ईमान की होती है। दया स्त्री का आभूषण है। गरीबों में भी जान होती है। वह केवल चोर ही नहीं होते। और ये बुआजी ,सदा सबको अपनी हुकूमत से डराने वाली , वास्तव में कोमल हृदया दया की देवी थीं।