कविता

अतृप्त मन

उतर आया था गोद में मेरी
आकाश से चंद्रमा जब पहली बार,
असीम आनंद की अनुभूति हुई थी
नारी से एक संपूर्ण नारी बनकर।
समा गया था संपूर्ण व्यक्तित्व में मेरे
चांद की शीतल रोशनी।
उस दूधिया रोशनी में
स्पष्ट झलक उठा था मेरे हृदय में
उठता भावनाओं का ज्वार और..
एक निशब्द ध्वनि गुंजित हो उठी..
“तुम आकर मेरे जीवन में,
सूनेपन के तमस को जैसे
अपनी उजली हंसी और किलकारियों से
दूर भगाकर,
खिला दिए हैं आनंद के अनगिनत पुष्प।”
मैं इतराने लगी, चहकने लगी,
संपूर्ण नारी होने के एहसास को जीने लगी।
जब पहली बार मेरे कानों में पड़ा
मिठास बोलता हुआ शब्द ‘मां’..
तब मैं अभिभूत होकर बार बार सुनने की
चेष्टा करने लगी इस शब्द को।
कानों में मधुरस घोलता हुआ यह शब्द
जितनी बार भी सुनती
उतनी बढ़ जाती मेरी प्यास।
नहीं.. नहीं.. मैं तृप्त होना नहीं चाहती,
अनंत बार सुनना चाहती हूं इस शब्द को
और…
जीवन भर रहना चाहती हूं अतृप्त..!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]