नारी तू नारायणी है
नारी हूँ मैं सिर्फ यही चिंता तो समाज को है ,
कौन जानता है दुख मेरा ,
सबको मतलब सिर्फ मेरे नकाब से है
यूँ तो भ्रम हूँ मैं खुद के लिए भी ,
पहचान मेरी मेरे शबाब से है ।
संवरने के अंदाज से भी जहाँ दूसरों को रश्क होता है ,
मेरी पहचान भी उसी समाज से है ।
खाली बोतल के जैसे होती है जिंदगी ,
भरी है क्यों वो पूरी ऐतराज इसी सवाल से है ।
पँखे के मानिंद सिर्फ घूमती ही रहे ,
ठहराव से बजूद बिखरा सा है ।
हाँ मैं नारायणी भी हूँ और काली भी ,
लक्ष्मी भी हूँ और दुर्गा भी ,
कोमल भी हूँ और शक्तिशाली भी ।
कायर भी हूँ और थोड़ी हिमाकत वाली भी ,
समाज की विद्रूपता की तस्वीर भी ,
इंसानियत की सच्ची मिसाल भी ।
दाग मत लगाओ स्वच्छ सफेद चादर पर ,
आज भी कहती हूँ मैं तुम्हारी पहचान भी सिर्फ मुझसे है ।
तुम्हारी शिकायत भी सिर्फ मुझसे ही है ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़