बसन्त
आया ऋतुराज बसन्त देख उल्लास प्रकृति में छाया ,
खिल गए कुसुम किंशुक पलाश चहुँ ओर हर्ष है छाया |
यह शस्य श्यामला धरा खिली रंग गयी विविध रंगों से |
लहराये लंहगा हरा – हरा चुनरी पीले बूटों से |
अमराई महके महर- महर कुहके मतवाली कोयल ,
गोरी के कंगना खनक उठे पैरों में छनके पायल |
यों लगे क्षितिज आलिंगन में धरती आकाश बंधे हैं ,
मानो अनंग के बाणों बिंध वासन्ती नेह पगे हैं |
गदराई सरसों इठलाती मंजरियाँ बौराई हैं ,
मधुरस में डूबी प्रकृति सभी पर तरुणाई छाई है |
गेहूँ की बाली झूम रही मन में आनंद भरा है ,
धरती ओढ़े पीली चूनर अम्बर भी खिला-खिला है |
भौरें गुन-गुन करके कलियों से करें प्रेम की बातें ,
मकरंद लुटाते फूल हँसे तितली पर नेह लुटाते |
फैली सुवास चहुँ ओर बहे है मन्द-मन्द पुरवाई ,
कलरव से गूंज उठा उपवन मन मे हुलसे फगुनाई |
स्वप्निल नयनों में आस नई मन में बजती बाँसुरिया ,
मन ‘मृदुल’ पिया की प्यारी मैं सखि नाँचू बन बाँवरिया |
© मंजुषा श्रीवास्तव’मृदुल’
लखनऊ,उत्तर प्रदेश