गज़ल
शब-ए-हिज्र का किस्सा,दिल-ए-बेज़ार की बात
क्यों छेड़ते हो हर दफा ये बेकार की बात
सर से पाँव तक शोले दहकने लगते हैं
जब भी सुनता हूँ उस बेवफा दिलदार की बात
सफाई दे के किसीको यहां फायदा क्या है
कौन मानेगा सच एक गुनाहगार की बात
यकीं यारों पे फिर आए भी तो आए कैसे
सही लगने लगी है तुमको जब अगयार की बात
कौन करता है फैसले किताबें देखकर अब
कानून आजकल होती है शहरयार की बात
— भरत मल्होत्रा