गज़ल
हरेक दर पे सजदा करने की आदत नहीं मेरी
जहाँ दिल माने झुकती है वहाँ पर ही ज़बीं मेरी
महफिल छोड़कर तेरी चल तो मैं दिया लेकिन
लगता है कि रह गई हैं चीज़ें कुछ वहीं मेरी
जड़ों से कट गया अपनी हवा में उड़ने की रौ में
न हुआ आसमां मेरा, न रह पाई ज़मीं मेरी
दोस्तों से दगा खाने की आदत हो गई इतनी
बिना किसी सांप के सूनी लगे मुझे आस्तीं मेरी
मुजरिम मैं अकेला ही क्यों ठहरा सबकी नज़रों में
गलती तो बराबर थी कहीं तेरी कहीं मेरी
— भरत मल्होत्रा