कविता
ज़िंदगी मुझे समझा रही थी
फर्क अपनो ओर परायों में
ओर उलझी हुई में झुक रही थी परायों के बीच
क्यो ??
शायद वास्तविकता जीते जीते कल्पनाएं ज्यादा सजीव लगने लगी थी
लेकिन झकझोर दिया अस्तित्व को
जब भावनाओ की बोली लगाई गई थी
ओर मन क्षुब्ध था दोस्ती और प्रेम के बीच
मन सिमट कर रह गया था टूटे विश्वास से
नदी किनारे जमी काई जैसे
जगह कर गया था अविश्वास
उखाड़ फेंका बड़े यत्न से मैंने उस विश्वास को —
जो खोखला कर गया था वजूद
अब कल्पना नही वास्तविकता में रहती हु
सिर्फ खुद को सिर्फ जीती हु मैं !!
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