गजल
न मकान गिरवी है, न लगान बाकी है,
बस कर्ज का मुफ्त, भुगतान बाकी है|
करता था मेहनत, कभी खेत में अपने,
बंजर पडा है खेत, बस मचान बाकी है|
हो गया आराम तलब, माफी के नाम पर,
मनरेगा में मजदूरी, बस मकान बाकी है|
बरसती थी कभी आँखे, सूखे खेत देखकर,
अब न कोई चाहत, न अरमान बाकी है|
मिल जाये रोज दारू, कुछ दोस्तों का साथ,
पत्नी दुखी- बच्चों का, इम्तिहान बाकी है|
— अ कीर्ति वर्धन