गज़ल
हमसे भी किस्मत ने देखो कैसी बेवफाई की
जब प्यार कफ़स से हुआ रूत आ गई रिहाई की
सोते हो अपनी ख्वाबगाह में तुम बड़े सुकून से
तुम्हें पता क्या कटती है शब किस तरह जुदाई की
टूटे ख्वाब ज़ख्मी दिल दीदा-ए-तर नज़्में कुछ
तफसील कितनी दूँ तुम्हें मैं इश्क की कमाई की
तुमपे ही असर न हुआ कोई ऐ ज़ालिम वरना
सब संग हुए मोम जब मैंने गज़ल-सराई की
हाथ खुद-ब-खुद दुआओं के लिए उठ जाते हैं
आज भी जब याद आती है उस हरजाई की
–– भरत मल्होत्रा