गीत –
देख दुनिया के चलन को, पीर उठती हैं सघन।
हैं यही मन की व्यथाएँ ,है यही चिंतन मनन।।
स्वार्थ में लिपटे हुए सब , प्रेम के नाते नहीं ,
जब समय अनुकूल होता ,सब तभी दिखते यहीं ,
हर तरफ ही शोर रहता ,लोग रहते हैं मगन ।
हैं यही मन की व्यथाएँ ,है यही चिंतन मनन।।
उर विकलता से भरा है , तज न पाया भ्रांति को ,
पाप कृत्यों ने बिगाड़ा, दिव्य मन की शांति को ,
जिंदगी में किस तरह अब , हो सुखों का आगमन ।
हैं यही मन की व्यथाएँ ,है यही चिंतन मनन।।
रूठते रिश्ते जगत में,भ्रात भी दुश्मन बना ,
दोष किसका है न जानें ,बैर है फिर भी ठना,
ईर्ष्या उर में पले तो , क्यों न हो नैतिक पतन ।
हैं यही मन की व्यथाएँ ,है यही चिंतन मनन।।
अब महकता घर नहीं है,गंध खोई है कहीं।
गीत में सरगम नहीं है,प्राण में सिहरन नहीं।।
हो रहे निष्प्राण सपने, प्रेम का होता हवन।।
हैं यही मन की व्यथाएँ,है यही चिंतन मनन।।
खो गई संवेदनाएँ, स्वार्थ की कलियाँ खिलीं ,
प्रीत की जो बुलबुलें थी, सब सिसकती सी मिलीं,
जिंदगी तो चल रही पर ,धूप छाई है सघन।
हैं यही मन की व्यथाएँ ,है यही चिंतन मनन।।
— शुभदा बाजपेयी