ग़ज़ल
इश्क का गर सफीर हो जाता ।
नाम फिर मुल्कगीर हो जाता।
जाने कब का अमीर हो जाता।
बस ज़रा बे ज़मीर हो जाता।
बात मन की अगर सुनी होती,
कम न रहता कसीर हो जाता।
उस घड़ी बेचता जो ईमां को,
एक पल में वज़ीर हो जाता।
शब्द होते अगर मेरे बस में,
कब का तुलसी कबीर हो जाता।
बात हल्की अगर कही होती,
हर नज़र में हक़ीर हो जाता।
साथ रहता जो उसके तकवा तो,
आज रौशन ज़मीर हो जाता।
फिर रिहाई उसे नहीं मिलती,
ज़ुल्फ़ का जो असीर हो जाता।
चूमते भी गले लगाते भी,
गर निशाने का तीर हो जाता।
— हमीद कानपुरी