लघुकथा -अंधभक्ति
“बाबा, मेरे पति कुछ साल पहले मेरी किसी बात से नाराज़ होकर कहीं चले गये| आप उनके बारे में बता कर मेरी कुछ मदद कर दीजिये| मैं आपका ये अहसान जीवन भर नहीं भूलूंगी|” सरिता हाथ जोड़े सन्यासी के सामने बैठी गिडगिडा रही थी| एक दम बाबा की नज़रें उस ओरत से मिली तो बोंले, “सरिता बेटी, वो आपसे बहुत दूर निकल गया है और अब उसका इंतज़ार करना तुम्हारे लिये बेकार है| उसने प्रभु से नाता बना कर नई दुनिया बसा ली है|” रोती हुई सरिता को अनायास ही आभास हुआ की बाबा तो उसका पति ही है| चाहे उसके पति ने रूप बदल लिया था लेकिन उसे यकीन हो गया की ये बाबा ही उसका पति है| तभी बाबा को सेवकों की भीड़ ने आ घेरा और सरिता बाबा से काफी दूर हो गई| सरिता चिल्लाई , “अरे ये तो मेरे पति हैं| मुझे अपने पति से मिलना है, मुझे रास्ता दो|” भीड़ कम होने पर वो बाबा के पास हो बोली, “मैंने आप को पहचान लिया है| आप ही मेरे पति हैं| लम्बे बाल, सफ़ेद दाहरी और साधू की वेश भूषा से आप अपने आप को मुझ से छिपा नहीं सकते|” बाबा भावुक हुए लेकिन बिल्कुल शांत और मौन रहे| सरिता ज़ोर से सिसकने लगी “काश, मैने आपके सहयोग, त्याग, समर्पण, परोपकार, नि:स्वार्थ रूपी भाव और अंधभक्ति को समझा होता|” सरिता की आँखों से पश्ताताप के आँसू बह रहे थे| खूब पछतावे में रोने लगी और मन ही मन बोली, “मैंने फैशन दुनिया की सफलता और रुतबे के मद में चूर हो अपने पति को आलसी, निकम्मा और मुफ्त में खाने वाला क्यों कह दिया था?” बाबा बोले, “मानता हूँ की मैं तुम्हारा पति था लेकिन अब तो मैं एक सन्यासी हूँ| दुनिया की मोह माया से अब मुझे कोई लगाव नहीं है| अब तो प्रभु ही मेरे सब कुछ हैं और सांसारिक दुनिया तो मैं कितने साल पहले अपने पीछे छोड़ आया हूँ| अब तो मेरे लिये ना दुःख है ना सुख है सिर्फ मैं और मेरे प्रभु हैं|” लाख कहने पर भी बाबा वापिस घर जाने को राज़ी नहीं हुए और अपने संकल्प पर अडिग रहे| सरिता मायूस हो दुखी सी हो जाने लगी| चाहे सरिता का मन बहुत बोझिल था लेकिन एक सांत्वना थी के वो एक बार तो अपने पति से मिल सकी| मौलिक और अप्रकाशित.
रेखा मोहन १५/५/१९