गज़ल
ख्वाबों की तरह बनता-बिखरता हुआ सा कुछ
सीने में लग रहा है क्यों टूटा हुआ सा कुछ
वही दूर तक फैले हुए तनहाई के साए
ये रास्ता है जाना-पहचाना हुआ सा कुछ
ता-उम्र जिसको ढूँढता रहा मैं दीवानावार
मिला ही नहीं मुझको वो खोया हुआ सा कुछ
वो अश्क थे या पानी की बूँदें किसे खबर
देखा था तेरे गालों पे फैला हुआ सा कुछ
कैसे मिलते वक्त तेरे पास भी कम था
मैं भी था अपने मसलों में उलझा हुआ सा कुछ
— भरत मल्होत्रा