फिर सदाबहार काव्यालय- 25
इंसान को भी कुछ इंसानियत सिखा
कल सुबह
मैं दामिनी के ख़्यालों में खोई हुई थी
जागते हुए भी
मानो, सोई हुई थी
इतना तो पता है ही
कि
कोई भी आए या चला जाए
दुनिया किसी के लिए नहीं थम सकती
मैं भी मन मसोसकर चाय पी रही थी
तभी कमरे की खिड़की के बड़े-से छज्जे पर
कबूतरों की एक जोड़ी की
गुटरगूं सुनाई दी
मैंने देखा कि
एक कबूतर कबूतरी के इर्द-गिर्द
चक्कर काट रहा था
शायद वह उसको प्यार-दुलार के लिए
मान-मुनौवल कर रहा था
कबूतरी मानने के मूड में नहीं थी
इसलिए कबूतर को घास नहीं डाल रही थी
कबूतर की बहुत कोशिशों के बावज़ूद
वह नहीं मानी
आखिर तंग आकर बोली
मुझे दामिनी-निर्भया-अनामिका की तरह
दरिंदगी का शिकार बनाने की
कोशिश मत करना
कम-से-कम कुछ तो शर्म-हया रखना
वरना
मुझे भी हवस का शिकार होने के साथ-साथ
दामिनी की तरह
कई बार ऑपरेशन की पीड़ा से गुज़रकर
अपनी अंतड़ियां निकलवानी पड़ेंगी
और जीने के लिए असफल ज़द्दोज़हद करनी पड़ेगी
ख़ैर
मुझे आई.सी.यू में
डॉक्टरों के द्वारा
बार-बार बेहोश करके
जाने क्या-क्या किया जाएगा
मुझे तो कुछ पता भी नहीं चल पाएगा
कि
कौन क्या-क्या और क्यों कह रहा है
तुमको ही देखना पड़ेगा
कि
कैसे शहर की नाकाबंदी करके
उसे छावनी का रूप दिया जा रहा है
कैसे सारे देश की धड़कनों को रोका जा रहा है
सामान्य लोग तो फिर भी सच्ची हमदर्दी दिखाएंगे
लेकिन
नेता लोग तो
अपनी ख़ुदगर्ज़ी को भी हमदर्दी के रूप में भुनाएंगे
फिर तुम ही सुनोगे
कि
कुछ लोग कहेंगे
कि
इसकी ज़िम्मेदार तो
कबूतरी ही है
क्योंकि
अगर वह सरेंडर कर देती तो
कम-से-कम अपनी अंतड़ियां तो बचा सकती थी
या कि इसमें फ़िल्मों और सीरियलों में
दिखाए गए कपड़ों या बहशीपने से पूर्ण
दृश्यों का कोई रोल नहीं है
कोई कहेगा कि
रोज़ इतने-इतने बलात्कार होते हैं
इसी केस पर इतना बवाल क्यों है
अरे!
पाप का घड़ा जब भरेगा तो
कभी-न-कभी तो फूटेगा न!
और
यदि मैं बच भी गई तो मेरा क्या हश्र होगा?
सारी उम्र इसी दहशत के साथ तिल-तिल मरूंगी
पल-पल मरूंगी
न कुछ खा सकूंगी
न ढंग से सुन-बोल सकूंगी
अपाहिज़ बनकर मौत से भी बदतर जीवन
जीने को मजबूर रहूंगी
अगर मौत ने मुझे
अपने आगोश में ले लिया तो
मैं तो फिर भी चैन प जाऊंगी
लेकिन
तुम्हें भी बख़्शा नहीं जाएगा
तू भी अपनी बुरी करनी का
बुरा फल पाएगा
इसलिए समय रहते संभल जा
दोस्त बनकर मेरे साथ
हंसी-खुशी समय बिता
इंसान को भी कुछ इंसानियत सिखा,
इंसान को भी कुछ इंसानियत सिखा,
इंसान को भी कुछ इंसानियत सिखा.
लीला तिवानी
मेरा संक्षिप्त परिचय
मुझे बचपन से ही लेखन का शौक है. मैं राजकीय विद्यालय, दिल्ली से रिटायर्ड वरिष्ठ हिंदी अध्यापिका हूं. कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास आदि लिखती रहती हूं. आजकल ब्लॉगिंग के काम में व्यस्त हूं.
मैं हिंदी-सिंधी-पंजाबी में गीत-कविता-भजन भी लिखती हूं. मेरी सिंधी कविता की एक पुस्तक भारत सरकार द्वारा और दूसरी दिल्ली राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. कविता की एक पुस्तक ”अहसास जिंदा है” तथा भजनों की अनेक पुस्तकें और ई.पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त अन्य साहित्यिक मंचों से भी जुड़ी हुई हूं. एक शोधपत्र दिल्ली सरकार द्वारा और एक भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत हो चुके हैं.
मेरे ब्लॉग की वेबसाइट है-
https://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/rasleela/
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इंसान तो हर घर में पैदा होते हैं,
बस इंसानियत कही-कहीं जन्म लेती है।
अच्छा स्वभाव
सौंदर्य के अभाव को पूरा कर देता है।