रिश्ते…!!
रिश्ते तब तक नहीं उलझते जब तक आप उसमे जी रहे होते, सिक्के के दो पहलू जहाँ हम साथ तो चलते लेकिन देख नहीं सकते, फिर भी एक विश्वास के साथ एक जगह मिल रहे होते ।
जीवन के मापदंड में केवल “मै” सही नहीं होता, कभी “तुम” और “हम” के अह्स्सासो को मौन भी होकर समझना पड़ता । प्यार स्वयं मे फलीभूत शब्द है, लेकिन फिर भी वाद-विवाद, नोंक- झोँक इस प्यार की आधार-बिंदु है जहाँ हम का समय- समय मे पता चलता है कि नाराज़ होना किसी भी रिश्तो मे खटास नहीं लाता बल्कि हमारे अपेक्षाओं का होना हमारे संबंधो मे मधुरता और स्पष्टता को दर्शाता है। ये अपेक्षाएं ही एक-दूसरे को एहसास से बांधता है, जहाँ हम इस कोशिश में रहते कि हमारे वज़ह से किसी के मान-सम्मान को हानि न पहुँचे। निसन्देह जो भी व्यक्ति किसी भी रिश्ते को निभा रहा औ अपेक्षा नही कर रहा कदापि सत्य नही, क्योंकि इक अंजान व्यक्ति दूसरे अंजान व्यक्ति से सम्मान के बदले सम्मान की मूलभूत अपेक्षा करता।
अपेक्षाएं अपनों से जरूर करनी चाहिए, और ये अपेक्षाएं तब मान्य होती है जब हम अपने अधिकारों का वहन अपने कर्तव्यों को निभा कर करते है। ये अपेक्षाएं हमे आस, विश्वास औ साथ के एकता-सूत्र में हमे एक-दूसरे के साथ बांधती ख़ुशी और दुखी होने का अनुभव कराती है।
रिश्तो को बनाने के लिए सिर्फ “मैं” या “तुम” काफी नहीं एक आस और विश्वास इस रिश्ते को दृढ़ता देता है कि समय जैसा भी “हम” अगर है, तो “हम” बन के ही अपने परिस्थियो से जूझ बाहर निकलेंगे और “हम” नहीं तो वो रिश्ता या संबंध एक समय अपने आप से स्वयं अलग हो जाएगा और कारण सीधा कि वो व्यक्ति अपेक्षाएं तो किया किंतु उसके बदले उसनें समय के साथ अधिकारों औ कर्तव्यों का निर्वहन नही किया औ बस “मैं” औ “तुम” से आगे नही सोच नही पाया, “हम” कहा तो लेकिन हम ” मैं” ले आया।
रिश्तों की डोर जितनी मजबूत कही जाती है.. उससे कही अधिक इसे निभाने औ समय की परिस्थितियों से जूझते हुए अपने जीवांत रिश्तों को बचाना पड़ता है।
इंसान के जुबां से कब टिकते है रिश्ते ..
दिल के एहसासो का ये बंधन ..
तब कही हम बन कर निभते है रिश्ते ……….!!